________________
संपादकीय वक्तव्य
चीन काल से एक कहावत चली आ रही है-'राजा और पंडिता दोनों जोड़ें कोष' या अर्थात् राजा और विद्वान दोनों के लिए कोष का होना बहुत जरूरी है। किसी RANA भी भाषा का अध्ययन, विना कोष के पूर्णतया नहीं हो सकता। कोष और
- व्याकरण, दानों भापा के जीवन होते है । व्याकरण की गति तो विद्वानों तक ही रहती है । परन्तु कोष वह वस्तु है, जिसका उपयोग विद्वान और साधारण वर्ग दोनों एक समान कर सकते हैं।
अस्तु, आज से कोई २३ वर्ष पहले जैनागम साहित्य का भी एक विशाल कोष बनाने का प्रश्न समाज के सम्मुख उपस्थित हुआ था। यह काम सौभाग्य से मेरे दुर्बल हाथों में सौंपा गया, जिसे मैंने अपनी योग्यता अनुसार काफी परिश्रम के बाद पूर्ण किया । यह वही अर्धमागधी कोष है जो श्वे. स्था-जैन कान्फ्रेंस की ओर से बड़े बड़े चार भागों में प्रकाशित होकर बहुत दिन हुए समाज के समक्ष पहुँच चुका है। चारों भागों का प्रकाशन काल इस प्रकार है :प्रथम भाग
१९७६ द्वितीय भाग
१९८३ तृतीय भाग
१६८६ चतुर्थ भाग
१४८८ आगमों सी भाषा, अर्धमागधी है । इस सम्बन्ध में जैन-सिद्धान्त कौमुदी की संस्कृत प्रस्तावना में काफी ऊहापोह किया गया है। प्रस्तुत कोष आगमों का है. अतः भाषा की दृष्टि स कोष का नाम 'अर्धमागधी कोष' रक्खा है। अर्धमागधी भाषा का स्रोत मूल आगमों से लेकर, श्रागमसाहित्य से निकट सम्बन्ध रखने वाले विशेषावश्यक भाष्य, पिंड नियुक्ति,
ओघनियुक्ति आदि ग्रन्थों तक माना जाता है। अत: हमने भी शब्द संग्रह करते समय उक्त सभी ग्रन्थों के शब्दों का संग्रह भी अर्धमागधी के नाम से उक्त कोष में कर दिया है। यह तो हुई पहले के चार भागों के निर्माण की बात । अब पाँचवें भाग के विषय में भी जानकारी कर लीजिए।
कोष लिखने का कार्य, अन्य सभी लेखन कार्यों की अपेक्षा बहुत कुछ अट पटा माना जाता है। चाहे कितनी ही क्यों न सावधानी रखी जाय, फिर भी बहुत से शब्द तो लेखिनी के नीचे आने से रह ही जाते हैं । अस्तु, अपने सम्बन्ध में भी यही हुआ। चार भाग लिखे जा चुके और प्रकाशित भी हो गए; फिर भी काफी संख्या में शब्द संग्रह करने में छूट गये। इसलिये परिशिष्ट के रूप में अर्धमागधी कोष का पाँचवाँ भाग बनाने का विचार किया गया। साथ में महाराष्ट्री प्राकृत एवं देशी प्राकृत भाषा का कोष बना लेना भी उचित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org