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प्रकाशकीय
जैन धर्म-दर्शन के प्रखर तत्त्ववेत्ता श्रद्धेय क्षु जिनेन्द्र वर्णी जी द्वारा लिखित 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' भारतीय ज्ञानपीठ ने चार भागो मे पहली बार सन् 1971-73 मे प्रकाशित किया था। प्रस्तुत ग्रन्थ उक्त चारो भागो की शब्दानुक्रमणिका (इण्डेक्स) के रूप मे पाँचवाँ खण्ड है। वैसे देखा जाए तो कोश अपने-आप मे शब्दानुक्रम के रूप मे ही होता है, फिर भी इस इण्डेक्स की अपनी विशेष उपयोगिता है। उदाहरण के लिए, 1 कोश मे शब्द विशेष के विवेचन मे प्रसगवश अनेक ऐसे शब्दो का भी उल्लेख है, जिन्हे मुख्य शब्द के रूप मे नही रखा गया, मात्र सन्दर्भ के रूप मे ही उनका प्रयोग हुआ है, 2 अनेक ऐसे शब्द भी है जिनका प्रयोग प्रसगत अनेक बार अनेक सन्दर्भो मे हुआ है, साथ ही, 3 ऐसे भी अनेक शब्द है जिनकी प्ररूपणाओ के सन्दर्भ एक-साथ,एक-जगह न होकर ग्रन्थ मे यत्र-तत्र फैले हुए है। इन सब बातो को ध्यान में रखकर वर्णी जी ने पूरे कोश की शब्दानुक्रमणिका जैसे श्रमसाध्य कार्य को भी अपने जीवन-काल के अन्तिम दिनो मे पूरा कर दिया था। वर्णी जी ने यह शब्दानुक्रमणिका कोश के प्रथम सस्करण के आधार पर बनायी थी, लेकिन बाद मे जो सस्करण निकले उनमे सशोधन-परिवर्तन के कारण चारो भागो की पृष्ठ-सख्या मे अन्तर आ गया । अत यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह शब्दानुक्रमणिका कोश के द्वितीय और उसके बाद के सस्करणो पर आधारित है। प्रथम सस्करण से इसकी पृष्ठ-सख्या मेल नहीं खाएगी। शब्दानुक्रम (इण्डेक्स) देखते समय पाठको को द्वितीय आदि सस्करण को ही ध्यान मे रखना होगा । इस शब्दानुक्रमणिका (इण्डेक्स) मे दिये गये शब्द के सन्दर्भ का पहला अक कोश के भाग का सूचक है । बिन्दु के बाद के अक उस भाग की पृष्ठ-सख्या के सूचक है । 'अ' का अर्थ उस पृष्ठ का पहला कॉलम है और 'ब' का अर्थ दूसरा कॉलम | जैसे 'केवली-- 2 155 अ' का तात्पर्य है कि 'केवली' शब्द के लिए देखे द्वितीय भाग के पृष्ठ 155 का पहला कॉलम। हमारे विशेष अनुरोध पर श्री अरहत कुमार जैन (वाराणसी) ने इस शब्दानुक्रमाणिका के सशोधन कार्य-द्वितीय आदि सस्करण के अनुरूप पृष्ठ-सख्या शुद्धि के कार्य मे अथक परिश्रम किया है। जैनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला, पानीपत के प्रबन्धक श्री सुरेश कुमार जैन ने भी इस दिशा मे हमे पर्याप्त सहयोग दिया है। भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से इन दोनों सहयोगी बन्धुओं के प्रति हम विशेष आभारी है।
-प्रकाशक
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