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________________ ऋग्वेद व अथर्ववेद में ऐसे अनेकों मंत्र हैं, जिनमें हे प्रात्मद्रष्टा प्रभो! परम सुख पाने के लिए मैं ऋषभदेव की स्तुति 'अहिंसक प्रात्म-साधकों में प्रथम तेरी शरण में प्राता है, क्योंकि तेरा उपदेश और वाणी 'अवधूत चर्या के प्रणेता' तथा 'मत्यों में सर्वप्रथम पूज्य और शक्तिशाली हैं । उनकों मैं अवधारण करता अमरत्व अथवा महादेवत्व पाने वाले महापुरुष के रूप में हूं। हे प्रभो ! सभी मनुष्यों और देवों में तुम्ही पहले की गई है। एक स्थान पर उन्हें ज्ञान का प्रागार तथा (पूर्वगत ज्ञान के प्रतिपादक) हो । दुःखों व शत्रुनों का विध्वंसक बताते हुए कहा गया है। कुछ एक मंत्रों में उनका नामोल्लेख नहीं हुआ है, प्रसूतपूर्वा वृषभों ज्यायनिभा प्रस्य शुरुधः सन्तिपूर्वीः। पर उनकी प्राकृति को विशेष लक्ष्य करते हुए उनकी दिवा न पाता विदथस्यधीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवो दधाथे। गरिमा व्यक्त की गई है। -ऋग्वेद, ५-३८ । जिस प्रकार जल से भरा हुया मेघ वर्षा का मुख्य त्रिणी राजना विनथे पुरूरिण परिविश्वानिभूषयः सदासि । अपश्यमत्र मनसा जगन्वान्वते गन्धर्वा अपि वायुकेशान् । स्रोत है और जो पृथ्वी की प्यास को बुझा देता है, उसी प्रकार पूर्वी अर्थात् ज्ञान के प्रतिपादक वृषभ महान् हैं। -ऋग्वेद, २०३८।६ उनका शासन वर दे । उनके शासन में ऋषि-परम्परा दोनों ही राजा अपने त्रिरत्न ज्ञान में सभात्रों के से प्राप्त पूर्व का ज्ञान प्रात्मा के क्रोधादि शवनों का हित में चमकते हैं । वह सर्वथा निज ज्ञान में जागरूक विध्वंसक हो । दोनों (संसारी और शुद्ध) प्रात्माए अपने व्रतों के पालक हैं एवं वायुनेश गंधवों से वेष्टित रहते ही आत्मगुणों में चमकती हैं, अतः वे ही राजा हैं, वे हैं। वे गन्धर्व (गरगधर) उनकी शिक्षाओं को अवधारण पूर्ण ज्ञान के प्रागार हैं और प्रात्म पतन नही होने देते। करते है। हमें उनके दर्शन प्राप्त हों। ऋग्वेद के एक दूसरे मंत्र में उपदेश और वाणी ऋषभदेव का प्रमुख सिद्धान्त था कि प्रात्मा में ही की पूजनीयता तथा शक्ति-सम्पन्नता के साथ उन्हें परमात्मत्व का अधिष्ठान , अतः उसे प्राप्त करने का मनुष्यों और देवों में पूर्वयावा माना गया है। उपक्रम करो । इसी सिद्धान्त की पुष्टि करते हुए वेदों में मखस्य ते तीवषस्य प्रजूतिमियभिं वाचमृताय भूषन् ।। उनका नामोल्लेख करते हुए कहा गया है। इन्द्र क्षितीमामास मानुषीणां विशां देवी नामुत पूर्वयावा। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीती, महादेवो मानाविवेश । . . -ऋग्वेद, २०३४।२ -ऋग्वेद, ४।५८१३ ग-वाजस्यनु प्रसव प्राबभूवेमा, च विश्वा भुवनानि सर्वतः । स नेमिराजा परियाति विद्वान, प्रजां पूष्टिं वर्धयमानो अस्मे स्वाहा ।। -यजुर्वेद, अ० ६ मंत्र २५ घ-स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्वदेवाः । स्वस्ति न स्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो वृहस्पतिर्दधातु ।। --सामवेद,प्रपा०प्र०३। ५. क-अतिथ्यरूपम्भासरम्महावीरस्य नग्नहः । रूपमुपदामेततिस्त्रो रात्रीं सुरासुता ॥ --यजुर्वेद, प्र० १६ मं० १४ ख-देववहिवर्धमानं सुवीरं, स्तीर्ण रायेसुमर वेद्यस्याम् । धृतेनाक्तवसव: सीदतेदं, विश्वे देवा प्रादित्यायज्ञियासः ।। 3 वद, म० २ प्र०१. सू०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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