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यतोराद्धि प्रमाणानां सकथं तैः प्रसिध्यति । वह त्रिगुण विलक्षण है अत: नित्य-मुक्त है। वह जिससे प्रमाणों की सिद्धि होती है, उसे प्रमाणों के द्वारा स्वभावत: ही कैवल्य सम्पन्न है । सांख्य में उसे मध्यस्थ कैसे सिद्ध किया जा सकता है ?
कहा गया है। वेदान्त दर्शन में प्रात्मा को शाता और ज्ञानरूप सांख्य में पुरुष को विविध सुदृढ़ तर्कों के आधार दोनों माना जाता है । ज्ञाता वास्तव में ज्ञान से अलग पर खड़ा किया गया है। उन सभी तकों का संग्रह नहीं होता। इनमें भिन्नता स्थापित नहीं की जासकती। सांख्यकारिकाकार ईश्वर कृष्ण ने इस प्रकार किया हैनित्य पात्मा को ज्ञान स्वरूप मानने में किस विप्रतिपत्ति
संघातपरार्थत्वात् विणादि विपर्यायादधिष्ठानात् । का सामना हो सकता है ? इसमें संशय की गृक्षायश
पुरुषोऽस्ति भोक्त भावात् कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च ॥ महीं है । प्रात्मा की अद्वैतता के विषय में भी वेदान्त के विचार बड़े प्रौढ़ प्रतीत होते हैं, यद्यरि व्यवहार दृष्टि
१. संघातपरार्थत्वात्-संघात-समुदाय सदा ही
दूसरों के लिये होता है, उसी प्रकार यह समुदायमय से अनुभव में दो पृथक् सत्तायें प्रतिभासित होती हैं। इस
जगत् भी किसी अन्य के उपयोग के लिये है। यही अन्य एक जीव तथा दूसरा जगम, परन्तु परमार्थतः सूक्ष्म
वस्तु 'पुरुष' है। दृष्ट्या प्रात्मा ही एक मात्र सत्ता सिद्ध होता है । जगत की सत्ता व्यवहार मात्र है । प्राचार्य शंकर का कहना है २. त्रिगुणादि विपर्ययात्-वह त्रिगुणात्मक कि हम प्रत्येक अनुभूति में-विषयी या विषय रूप से, नहीं है इसलिये वह अधिष्ठाता है। प्रकृतिः त्रिगुणात्मिका या कर्ता और कर्म रूप से प्रात्मा की ही एक अखण्डाकार है वह अधिष्ठान है, अधिष्ठान बिना अधिष्ठान के नहीं उपलब्धि पाते हैं। एक ही अद्वैत सता सर्वत्र उपलब्ध रह सकता। इसलिये अधिष्ठाता पुरुष की कल्पना होती है। विषयी तथा विषय का पार्थक्य परमार्थतः नहीं आवश्यक है। है, वह तो व्यवहारतः है ।
३. अधिष्ठानात्-जड़ पदार्थ में जब चेतन का सांख्य दर्शन में चेतनास्तित्व
अधिष्ठान होता है तभी वह प्रवृत्त होता है। रथ में जब चेतनास्तित्व के निरूपण में सांख्य दर्शन का अपना
चेतन सारथि का अधिष्ठान नहीं होता तो रथ चल नहीं महत्व सब से अलग ही है । सांख्य में जो चेतन सत्ता
सकता। ऐसे ही सुख दुःखात्मक यह जड़ जगत् भी
किसी चेतन पदार्थ से अधिष्ठित होकर ही प्रवृत्त स्वीकृत की गई है उसे "पुरुष" संज्ञा दी है ! सांख्य में
होता है। पहला तत्व प्रकृति को स्वीकार किया गया है। पुरुष दूसरा तत्व है। यह त्रिगुणातीत है, सत्, रज और तम। ४. भोवतभावात्-संसार के सभी विषयभोग्य इन तीनों गुणों से परे है । विवेकी, विषयी, विशेष्य, हैं इनका भोक्ता भी कोई होना चाहिये, यह भोक्ता ही चेतन तथा अप्रसव धर्मी है । चैतन्य इसका गुरण नहीं चेतन पुरुष है। है, अपितु स्वरूप है । जगत के पदार्थों में त्रिगुणात्मकत्ता प्रकृति का अंश है और चैतन्यास्तित्व चेतन पुरुष का
५. कवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च--इस विश्व में बहुत से भाग है । पुरुष सदृश तथा विसदृश परिणाम से रहित मनुष्य दुखा से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहते है। है । यह विकार-रहित, कूटस्थ, नित्य तथा सर्वव्यापक यह माक्ष चाहने वाला कौन है ? बस यही पुरुष है। है। यह निष्क्रिय है तथा अकर्ता है । चैतन्य संयुक्त सांख्य के मत में पुरुष अनेक हैं। इसके लिये अनेक पदार्थों मे जो क्रियाशीलता तथा कर्तत्व दिखाई देता है प्रमाण हैं। पुरुष देश कालातीत है इसलिए वह एक वह वास्तव में प्रकृति का धर्म है। जगत् का कत्तत्व होगा, इस मान्यता का कोई ठोस प्रामाणिक प्राधार प्रकृति में है, पुरुष तो केवल साक्षीमात्र एव दृष्टा है। नहीं है।
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