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________________ जैन धर्म का आत्मतत्व और कर्म सिद्धांत • पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है। जब से प्रात्मा है, तब से ही उसके साथ कर्म लगे हुए हैं। समय पुराने कर्म अपना फल देकर प्रात्मा से अलग होते रहते हैं और प्रात्मा के रागद्वषादि भावों के द्वारा नये प्रत्येक कर्म बधते रहते हैं। यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक आत्मा को मुक्ति नहीं होती जैसे अग्नि में बीज जल जाने पर बीज वृक्ष की परम्परा समाप्त हो जाती है वैसे ही रागद्वषादि विकृत भावों के नष्ट हो जाने पर कर्मों की परम्परा आगे नहीं चलती। कर्म अनादि होने पर भी शान्त है। यह व्याप्ति नहीं है कि जो अनादि हो उसे अनन्त भी होना चाहिए-नहीं तो बीज और वृक्ष की परम्परा कभी समाप्त नहीं होगी। व अथवा प्रात्मा एक अत्यन्त परोक्ष पदार्थ है । दर्शन होने के कारण प्रात्मा को भी विभिन्न दृष्टिकोणों ' संसार के सभी दार्शनिकों ने इसे तर्क से सिद्ध से देखता है। उसके विभिन्न धर्मों और स्वभावों की करने की चेष्टा की है । स्वर्ग, नरक, मुक्ति प्रादि अति ओर जब उसका ध्यान जाता है तब उसके ( प्रात्मा के ) परोक्ष पदार्थों का मानना भी आत्मा के अस्तित्व पर नाना रूप उसके सामने आते हैं और वह उन्हीं रूपों ही प्राधारित है । आत्मा न हो तो इन पदार्थों के मानने अथवा गुणधर्मों एवं स्वभावों को विभिन्न अपेक्षा का कोई प्रयोजन नहीं है। यही कारण है कि जीव के मानकर प्रात्मा की दार्शनिक विवेचना करता है। यह स्वतन्त्र अस्तित्व का निषेध करने वाला चार्वाक इन विवेचना प्रात्मा के सारे रूप उसके सामने ला देती है। पदार्थों के अस्तित्व को कतई स्वीकार नहीं करता। ग्रात्मा का वर्णन करने के लिए जैन दर्शन ये नौ प्रात्मा का निषेध सारे ज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्ड के विशेषताएं बतलाता है। निषेध का एक अभ्रान्त प्रमाण पत्र है । पारलौकिक (१) वह जीव है (२) उपयोगमय है (३) अमूर्न जीवन से निरपेक्ष लौकिक जीवन को समुन्नत और है (४) कर्ता है (५) स्वदेह परिमाण है (६) भोक्ता है सखकर बनाने के लिए भी यद्यपि ज्ञानाचार और (७) संसारस्थ है (८) सिद्ध है (8) स्वभाव से ऊर्ध्वगमन क्रियाचार की जरूरत तो है । और इसे किसी न किसी करने वाला है। रूप में चार्वाक भी स्वीकार करता है तो भी पर पहिले हमने कहा है कि चार्वाक प्रात्मा का लोकाश्रित क्रियानों का आत्मा प्रादि पदार्थों का अस्तित्व स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानता, उसी को लक्ष्य करके नहीं मानने वालों के मत में कोई मूल्य नहीं है। 'जीव' नाम का पहला विशेषण है। जीव सदा जीता जैन दर्शन एक मास्तिक दर्शन है । वह प्रात्मा रहता है, वह अमर है, कभी नहीं मरता । उसका और इससे सम्बन्धित स्वर्ग, नरक, और मुक्ति प्रादि का वास्तविक प्राग्ग चेतना है । जो उसकी तरह ही अनादि स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है । आत्मा के सम्बन्ध में और अनन्त है। उसके कुछ व्यावहारिक प्राण भी होते उसके समन्वयात्मक विचार हैं । वह अनेकान्तवादी हैं जो विभिन्न योनियों के अनुसार बदलते रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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