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प्यारा पुत्र हूं। हाय ! कितने आश्चर्य की बात है कि आप स्वयं पिता होकर अपने प्रिय पुत्र को मारने के लिए दौड़ रहे हैं। उनके इस प्रकार स्मरण दिलाने पर गजराज चौंक गया। अपने पूर्व जन्म की स्मृति कर उसकी आंखों से आंसू की धारा बहने लगी। वह मूर्ति के समान निश्चल खड़ा रहा। सिंहचन्द्र मुनि ने उसे जिन धर्म का उपदेश दे पांच अणुव्रत दिए। इसके बाद वह हाथी प्रासुक अन्न-जल ग्रहण कर व्रत की पूर्ति करने लगा। एक दिन वह पानी पीने के लिए नदी किनारे गया, किन्तु वह कीचड़ में फँस गया। उसने कीचड़ से निकलने की लाख कोशिश की, मगर वह निकल न सका। तब उसने कीचड़ में समाधिमरण की प्रतिज्ञा ली। उसी समय पूर्वजन्म का वैरी श्रीभूति का जीव मुर्गा उसके शरीर पर बैठकर उसका जीवित मांस खाने लगा। यद्यपि हाथी के शरीर को मुर्गे द्वारा मांस खाने से घोर वेदना होती थी, किन्तु उसने असह्य वेदना की रञ्चमात्र भी परवाह नहीं की। वह पञ्च (नमस्कार) मन्त्र का स्वाध्याय करने लगा। फलस्वरूप हाथी शान्ति से मरकर सहस्त्रार स्वर्ग का देव हुआ।
रश्मिवेग मुनि को श्रीभूति के जीव भयंकर अजगर ने काट खाया। मुनिराज अपने अटूट ध्यान में लीन थे, उन्हें क्या परवाह थी। अन्त में उनके सारे शरीर में विष व्याप्त हो गया। वे मरकर कापिष्ठ स्वर्ग में गये। __अहिछत्रपुर के राजा वसुपाल ने 'सहस्त्रकूट' नामक रमणीय और विशाल जिनमन्दिर का निर्माण कराया। उसमें भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित की। प्रतिमा पर लेप चढ़ाने के लिए एक प्रसिद्ध लेपकार को बुलाया। उसने बड़ी सुन्दरता से लेप चढ़ाया, किन्तु प्रातःकाल जब देखा गया तो लेप गिर चुका था। ऐसे कई दिन बीत गये। शाम को लेप चढ़ाता था और रात को गिर जाता था। इससे वहां के नागरिक और राजा बड़े दुखी हुए। उसका कारण यह था कि लेपकार मांसाहारी था। उसकी अपवित्रता से प्रतिमा पर से लेप गिर जाता था। चित्रकार को संयोग से एक मनि द्वारा रहस्य मालुम हआ। उसने मांस न खाने का व्रत लिया। अनन्तर दूसरे दिन उसने लेप किया, अबकी बार वह लेप ठहर गया। राजा ने प्रसन्न होकर लेपकार का सत्कार किया।
___ एक बगीचे में तपस्वी सागरसेन मुनि ठहरे थे। नगरनिवासी गाजे बाजे के साथ उनके दर्शन के लिए आए थे। उनके लौट जाने पर एक श्रृगाल ने यह समझा कि लोग एक मुर्दा डाल गए हैं। वह खाने के लिए आया। तब मुनिराज ने उसे समझाया कि पाप का परिणाम बुरा होता है। तू मुर्दा खाने के लिए इतना व्यग्र हो रहा है, तुझे धिक्कार है। तने जैनधर्म न ग्रहण कर आज तक तो दुख उठाया है, पर अब तू पुण्य पथ पर चलना सीख। उसके भाग्य अच्छे थे। मुनि का उपदेश सुनकर वह शांत हो गया। मुनि ने फिर कहना आरम्भ किया—तू व्रतों को धारण नहीं कर सकता, इसलिए रात्रि को खाना-पीना छोड़ दे। यह व्रत सब व्रतों का मूल है। श्रृगाल ने ऐसा ही किया ।
ज के चरणों का स्मरण किया करता था। एक दिन श्रृगाल को प्यास लगी। वह एक कुएं में पानी पीने गया। कुएं के भीतर अंधेरा था। उसने समझा रात हो गयी। बिना पानी पिये ही लौट आया। वह कई बार कुएं के भीतर उतरा, पर वहां सूर्य का प्रकाश न देखकर लौट आता था। अन्त में वह इतना अशक्त हो गया कि अबकी बार कुएं से बाहर ही न निकल सका। वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पश्चात् उसने धनमित्रा के गर्भ से प्रीतिकर के रूप में जन्म लिया। प्रीतिकर मुनि हो गया और शुक्ल ध्यापूर्वक मोक्ष गया। इस प्रकार जैन साहित्य में पशु जगत् की सुरक्षा के अनेक सन्दर्भ प्राप्त होते हैं।
निकट जैन मंदिर बिजनौर, उत्तर-प्रदेश
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