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________________ की दृष्टि में ये सभी जीव समान हैं। गाय को देवी मानकर और उसे देवों की कामधेनु समान समझकर उसकी वन्दना करता है और फिर गोमेध यज्ञ में उसका घात भी करना कहां तक-पाप संगत है। जो वृषभ यज्ञ को धर्म मानकर उसमें रति करता तथा सौदामिनी यज्ञ में मद्यपान का व्याख्यान करता है. ऐसे विप्र को प्रसन्न करने की चिन्ता नहीं करनी चाहिए तथा सच्चे ऋषियों द्वारा उपदिष्ट धर्म ग्रहण करना चाहिए। जसहरचरिउ के तृतीय सन्धि-परिच्छेद में कहा गया है कि अन्ततः कुत्ते वे ही होते हैं, जो मृगों का विदारण करते हैं और क्या कुत्तों के मस्तक पर कोई सींग होते है ? अन्यत्र कहा है-जहां वनचर जीवों के समूह का घात कराया जाता है, वहां परभव में स्थित अपने बन्धु का भी हनन हो जाता है। - स्याद्वादमञ्जरी में मल्लिषेणसूरि ने कहा है कि बेचारे पशुओं के मांस का दान करना केवल निर्दयता का ही घोतक है। वेदोक्त रीति से पशुवध करने का फल केवल पशुओं के मांस का दान करना नहीं, किन्तु उससे विभूति की प्राप्ति करना है क्योंकि श्रुति में भी कहा है-'ऐश्वर्य प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले पुरुष को वायु देवता के लिए श्वेत बकरे का यज्ञ करना चाहिए' आदि यह व्यभिचार पिशाच से ग्रस्त होने के कारण ठीक नहीं है। क्योंकि ऐश्वर्य की प्राप्ति अन्य उपायों से भी हो सकती है। यदि कहो कि यज्ञ में मारे जाने वाले बकरे आदि परलोक में स्वर्ग प्राप्त करते हैं, इसलिए प्राणियों का उपकार होता है, यह भी ठीक नहीं; क्योंकि बकरे आदि यज्ञ में वध किए जाने के बाद स्वर्ग प्राप्त करते हैं, इसका कोई प्रमाण नहीं है; क्योंकि मरने के बाद स्वर्ग में गए हुए पशु स्वर्ग से आकर प्रसन्न मन से वहां के समाचारों को नहीं सुनाते। यदि यज्ञ में पशुओं को बांधने की लकड़ी को काट करके, पशुओं का वध करके और रक्त से पृथ्वी का सिंचन करके स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो फिर नरक में कौन जाएगा यदि अपरिचित और अस्पष्ट चेतनायुक्त तथा किसी प्रकार का उपकार न करने वाले मक प्राणियों के वध से भी स्वर्ग की प्राप्ति होना संभव है तो परिचित और स्पष्ट चेतनायक्त तथा महान उपकार करने वाले अपने माता-पिता के वध करने से याज्ञिक लोगों को स्वर्ग से भी अधिक फल मिलना चाहिए। यदि आप कहें कि मणि. मन्त्र और औषध का प्रभाव अचिन्त्य होता है, इसलिए वैदिक मन्त्रों का भी अचिन्त्य प्रभाव है, अतएव मन्त्र से संस्कृत पशुओं का वध करने से पशुओं को स्वर्ग मिलता है तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि इस लोक में विवाह, गर्भाधान और जातकर्म आदि में उन मन्त्रों का व्यभिचार पाया जाता है तथा अदृष्ट स्वर्ग आदि में उस व्यभिचार का अनुमान किया जाता है। देखा जाता है कि वैदिक विधि के अनुसार विवाह आदि किए जाने पर भी स्त्रियां विधवा हो जाती हैं तथा सैकड़ों मनुष्य अल्पायु, दरिद्रता आदि उपद्रवों से पीड़ित रहते हैं तथा विवाह आदि के वैदिक मन्त्र विधि से सम्पादित न होने पर भी अनेक स्त्री-पुरुष आनन्द से जीवन यापन करते हैं, अतः वैदिक मन्त्रों से संस्कृत वध किए जाने पर पशुओं को स्वर्ग की प्राप्ति स्वीकार करना ठीक नहीं है। यदि आप कहें कि मन्त्र अपना पूरा असर दिखाते हैं, किन्तु यदि मन्त्रों की ठीक ठीक विधि नहीं की जाये तो मन्त्रों का असर नहीं रहता, यह कथन भी ठीक नहीं। इससे संशय की निवृत्ति नहीं होती, क्योंकि मन्त्रों की विधि में वैगुण्य होने से मन्त्रों का प्रभाव नष्ट हो जाता है, अथवा स्वयं मन्त्रों में ही प्रभाव दिखाने की असमर्थता है, यह कैसे निश्चय हो ? मन्त्रों के फल से अविनाभाव की सिद्धि नहीं होती। तत्त्वदर्शी लोगों ने कहा है--जो निर्दय पुरुष देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अथवा यज्ञ के बहाने पशुओं का वध करते हैं, वे दुर्गति में पड़ते हैं वेदान्तियों ने भी कहा है यदि हम पशुओं से यज्ञ करें तो घोर अन्धकार में पड़ें, अतएव हिंसा न कभी धर्म हुआ है, न है और न होगा। आचार्य जिनसेन कृत हरिवंशपुराण से ज्ञात होता है कि जिस समय तीर्थंकर नेमिनाथ राजीमती से विवाह करने हेतु प्रस्थान कर रहे थे,उस समय मार्ग में उन्होंने ऐसे तृणभक्षी पशुओं को देखा, जिनके मन और शरीर भय से कांप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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