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________________ के लिए भोजन करे, भोजन के लिए नहीं जीए। अतएव वह दूध का उपयोग भी औषधिवत् करे, भोग-साधन के लिए नहीं, ऐसा जैनशास्त्रों का स्पष्ट निर्देश है । जल-संरक्षण और जल प्रदूषण की रोकथाम जल के निर्रथक अपव्यय से भूमि के नीचे के जलस्त्रोत अधिक नीचे होते जा रहे हैं। इस कारण पहले से ही जल की कमी वाले प्रदेशों में तो जल कई दिनों में एक बार सप्लाई किया जा रहा है। पानी को वाटर वर्क्स में पीने योग्य बनाने के लिए काफी खर्चा किया जाता है। पानी की टूटी खुली छोड़ना जल और उसे शुद्ध करने के संसाधनों का अपव्यय है। जैन दर्शन में जल के निर्रथक उपयोग का निषेध अनर्थदंड विरति है । जलकाय की रक्षा करें और जलकाय की हिंसा से बचें। जल प्रदूषण के सारे कारणों रसायनों, कूड़ा-कर्कट, रेडियोधर्मी पदार्थ, मल-मूत्र आदि का जल में डालना जलकाय और जलकाय के आश्रित त्रस जीवों के विनाशक होने से जैन आचरण में वर्ज्य है। जैन लोग मुर्दों को या चिता की राख को नदी में नहीं बहाते । नैष्ठिक जैन तो वर्तन में लगे दाल, आटे को धोने पर प्राप्त पानी भी जीव रहित भूमि पर फैला देते हैं ताकि वह सूख जाये और सम्मूर्च्छिम जीवों की उत्पत्ति न करे। दूसरी ओर घरेलू औद्योगिक अपशिष्ट, मल-मूत्र नालियों का पानी आदि नदियों में मिल जाने से बहाव समाप्त जिससे प्लावक पैदा हो जाते हैं तथा पानी में आक्सीजन की कमी हो जाती है। मछली आदि जल में मर जाते हैं । मल-मूत्र विसर्जन से सूक्ष्म जीवों का पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ता है और हैजा आदि महामारी फैलती हैं। जैन दर्शन का निर्देश है कि पानी कम से कम प्रयोग किया जाये और पानी में अन्य सम्मूर्च्छिम जीवों या उनके पैदा होने योग्य किसी भी पदार्थ को न मिलाया जाये, न ही नदी, झील आदि की मछलियों आदि प्राणियों को हानिकारक युक्त जल में छोड़ा जाये । अनछने अप्राशुक पानी से हैजा और संक्रामक रोग होकर रोगी के मल-मूत्र से पूरे वातावरण में रोग फैलाते हैं । जैन लोग पानी को छान कर तथा उबालकर या पानी में कषाय द्रव्य पिसी लौंग आदि डालकर पीते हैं जिससे न स्वयं रोगी होते हैं और न रोगी होकर वातावरण में रोग फैलाते हैं । जाता वायु प्रदूषण की रोकथाम श्वसन क्रिया में सभी जीव कार्बनडाईआक्साइड निकालते तथा आक्सीजन लेते हैं किन्तु हरे पौधे सूर्य - प्रकाश की उपस्थिति में कार्बनडाई आक्साईड का भोजन बनाने में उपयोग कर आक्सीजन वायु में डालते हैं। इस प्रकार इन दोनों का अनुपात सन्तुलित रहता है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इस सन्तुलन को बिगाड़ता है । एक ओर तो वह वनों को काट डालता है जिससे पौधों द्वारा प्रदत्त आक्सीजन की कमी हो जाती है । दूसरी ओर रसोई, कारखानों, ट्रक, बस, कार, विमान आदि से अनेक विषैली गैसें तथा सूक्ष्म कार्बन-कण वायु में मिल जाते हैं। जो अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। पिछली शताब्दी की अपेक्षा कार्बन-डाईआक्साइड की मात्रा वायुमंडल में 10 से 15% तक बढ़ गई है। इस वृद्धि के कारण ग्रीन हाउस इफैक्ट से वायुमंडल का तापक्रम इतना बढ़ सकता है कि बर्फ के बड़े-बड़े हिमनद पिघलकर समुद्र किनारे के मैदान / नगर दूर-दूर तक जल में डूब जायेंगे 1 जैन दर्शन वायुकाय और वायु-आश्रित सूक्ष्म जीवों तथा पक्षियों आदि के प्रति सदैव करुणावान् है । वह तो कहता है बिना आवश्यकता ईंधन न जलाएं। जलाने की आवश्यकता को भी कम करें। हरा ईंधन न जलायें क्योंकि वह सजीव है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हरा ईंधन अधिक धुआं उत्पन्न करता है । निष्प्रयोजन मात्र शौक के लिए यात्रा न करें। यथासंभव पैदल चलने पर जोर दिया गया है, जिससे प्रदूषण नहीं फैलता और शरीर के व्यायाम से स्वास्थ्य उन्नत रहता है। वायु-मंडल में सूक्ष्म रोगाणुओं की वृद्धि न हो इसके लिए जैन लोग रोगाणुओं की वृद्धि रोकने वाले कूड़ा-कर्कट, मल-मूत्र आदि को जीव रहित प्राशुक स्थान में इस प्रकार डालते हैं कि वे सूर्य-प्रकाश, वाष्पीकरण आदि : द्वारा शीघ्र जीव रहित हो जायें। जैनधर्म का अहिंसा - सिद्धांत रासायनिक, जैव रासायनिक और परमाणु शस्त्रों पर तुरंत प्रतिबंध लगाने की मांग करता है, जिससे वायुमंडल से जीवाणु और परमाणु प्रदूषण समाप्त हो जाये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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