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________________ हैं, गेहूं में तीन इन्द्रिय तक, चने में आंखों वाले, उड़ने वाले चार इन्द्रिय तक; अंडे, मांस और सड़े हुए दूध में पांच इन्द्रिय तक सम्मूछिम जीव उत्पन्न होते हैं। ये आधुनिक विज्ञान-सम्मत जीवाणुओं और वाइरस के ही विभिन्न भेद हैं। ये सम्मूर्छिम जीव बड़ी तेजी से जन्म-मरण करते हैं और मृत शरीरों में ही पुनः नये जीव उत्पन्न हो जाते हैं। जैन दर्शन की दो प्रमुख देन हैं—सम्मूर्छिम जीवों का सिद्धांत तथा परमाणु सिद्धांत। इसी के समानान्तर आधुनिक विज्ञान की भी दो प्रमुख देन हैं-जीवाणु सिद्धांत और परमाणु सिद्धांत। जीवाणु सिद्धांत पर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान, जनन-शस्त्र आदि आश्रित हैं और परमाणु-सिद्धांत पर परमाणुशक्ति। कहने का प्रयोजन यह है कि हमें पारितन्त्र और पर्यावरण को केवल स्थूल स्तर पर ही नहीं समझना है, अपितु सूक्ष्म स्तर पर भी सूक्ष्म जीवों का पारिस्थितिक सन्तुलन स्पष्ट रूप से समझना है क्योंकि जैनधर्म के सिद्धांत पर्यावरण-रक्षण में सूक्ष्म जीवों और परमाणुओं को आगे रखकर चले हैं। वे एक जन्तु या पौधे के शरीर को इकाई मान कर नहीं चले हैं वरन् सूक्ष्म जीवों के समूह के रूप में देख कर चले हैं। एक सूक्ष्म जीव अथवा परमाणु भी पर्यावरण में बहुत उलट-फेर कर सकता है। अतः जैन दर्शन ने पर्यावरण रक्षण के लिए अपने सिद्धांत अत्यंत सूक्ष्मता से प्रतिपादित किये हैं। हमें उनका रहस्य समझने और आचरण में लाने के लिए उतनी ही सूक्ष्म दृष्टि को अपनाना होगा। पर्यावरण-रक्षण के सूत्र पर्यावरण रक्षण के लिए विख्यात पर्यावरण विशेषज्ञों ने सामाजिक/राष्ट्रीय स्तर पर अनेक उपाय सुझाये हैं। डा० खोशू ने तो 1989 में पर्यावरण-रक्षण के लिए छः सूत्रीय कार्यक्रम दिया और उसे 'धर्म' की संज्ञा दी। किन्तु यह कार्यक्रम पहले से ही जैनधर्म के सूत्रों और श्रावकों के आचरण में चला आ रहा है। डा० खोशू के छः सूत्रों और उनके समानान्तर जैनधर्म के सिद्धांत निम्न प्रकार हैं : डा० खोशू के सूत्र जैन धर्म के सिद्धांत 1. उपभोक्तापन के सामाजिक, आर्थिक और धर्मोपदेश स्वाध्याय द्वारा इन्द्रियसंयम और प्राणी पर्यावरणीय मूल्यों के संबंध में जागृति उत्पन्न संयम की आवश्यकता को समझना, समझाना, करना। अपध्यान विरति। जीवन में मितव्ययिता और भाई-चारे की स्थायी जीवन शैली को स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करना । अपरिग्रह, अनर्थदण्ड-विरति और अहिंसा । आर्थिक और पर्यावरणीय कारकों का उचित रीति अपरिग्रह, अनर्थदण्ड-विरति और अहिंसा। से समन्वय करके ही वास्तविक सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करना। संसाधनों का उचित विभाजन । अपरिग्रह 5. जीवन-पोषक तन्त्र के पुनरुत्पादन की सुरक्षा और अनर्थदण्ड विरति ? वृद्धि (अपवयय पर रोक, मितव्यय और प्रबन्धन द्वारा) 6. शस्त्र-निर्माण पर रोक और निर्मित शस्त्रों को नष्ट अहिंसा करना। पर्यावरण-रक्षण में जैनधर्म के सिद्धांतों का उपयोग डा० खोशू के सूत्रों का आचरण की दृष्टि से नियमित क्रम न होने से हमने उन्हें मात्र क्रम बदल कर ऊपर दिया है। जैनधर्म के सिद्धांत इन सूत्रों से बहुत अधिक व्यापक और गहरे हैं। जैन धर्म के अनुसार ब्रह्मचर्य सर्वोपरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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