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पर्यावरण-रक्षण में जैनधर्म के सिद्धांतों का उपयोग
राजकिशोर जैन पर्यावरण-रक्षण क्या है ?
__ किसी जीव के चारों ओर के पदार्थ—पृथ्वी, जल, वायु आदि और उनकी विभिन्न दशाएं, उर्जा-प्रकाश, उष्मा आदि और उनकी दशाएं, घटनाएं तथा अन्य जीव (पौधे, जन्तु, सूक्ष्म जीव) जो उसके जीवन और विकास को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं, सब मिलकर पर्यावरण कहलाते हैं। मनुष्य जिस पर्यावरण में रहता है उसमें सुख
और सुरक्षापूर्वक रहने के लिए आवश्यक है कि पर्यावरण निश्चित, नियमित और संतुलित रहे। पर्यावरण में ऐसे अनेक जैव-अजैव कारक हैं जो सन्तुलित अवस्था में रहें तभी मनुष्य भी भली-भांति सुखपूर्वक उनमें रह सकता है। मनुष्य सर्वाधिक विकसित उन्नत प्राणी है। अतः पर्यावरण को सन्तुलित रखने में मनुष्य की अहम् भूमिका है। सुख, सनक और आनन्द की प्राप्ति के लिए यह पर्यावरण को खूब बिगाड़ भी सकता है और समझदारी तथा संयम के द्वारा खूब सुधार भी सकता है। जीवन की उच्चतम सुख सुविधाओं को पाने के लिए विकास की सीढ़ियों पर शीघ्र-शीघ्र कदम रखते मानव ने जंगलों को काट-काट कर खेत बनाये, नगर बसाये, जंगली जानवरों का शिकार किया, बड़े-बड़े बांध बनाए, उद्योग लगाए, खाद व कीटाणुनाशक बनाए, सुरक्षा के नाम पर घातक रासायनिक, जैव-रासायनिक, परमाणु शस्त्र बनाए, जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि की, किन्तु इन सबके द्वारा पर्यावरण के पारितन्त्र (पारिस्थितिक व्यवस्था) को बिगाड़ कर पर्यावरण को रहने योग्य नहीं छोड़ा है। उपर्युक्त कारणों से मनुष्य जाति
नहीं रही। आज उसे विषैली गैसों से मिश्रित हवा में सांस लेना पड़ रहा है, दूषित जल पीना पड़ रहा है. दूषित अन्न खाना पड़ रहा है। मृत्य-दर में वृद्धि, असन्तलित बच्चों का जन्म, भोजन की कमी आदि इसी प्रभाव के उदाहरण हैं। अधिक वृक्ष काटने से बाढ़ और सूखे का प्रकोप बढ़ रहा है। मनुष्य ने स्वयं ही पर्यावरण में असन्तुलन पैदा कर अपने अस्तित्व को खतरे में डाला है। सन्तुलन को स्थिर बनाए रखने हेतु मानव का पर्यावरण के साथ समन्वय आवश्यक है जो समझदारी और संयम द्वारा ही संभव है।
जीवों के समुचित पोषण, आहार आदि के लिए स्तरीय पर्यावरण का बने रहना जिसमें लाभदायक पौधों, जन्तुओं, सूक्ष्म जीवों और अजैव पदार्थों की क्रिया-अनुक्रियाओं / लेन-देन का एक संतुलित सुनियोजित चक्र बनाये रखा गया हो यही पर्यावरण का रक्षण है। दूसरे शब्दों में, पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने का अर्थ है चारों ओर पृथ्वी, जल, और वायु के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में ऐसे अवांछित परिवर्तन या मिश्रण को रोकना
त्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मानव जीवन के लिए हानिकारक हैं। सभी जीवित प्राणी अन्य जीवित प्राणियों पर निर्भर हैं। जैव समुदाय के सदस्यों में आपसी अच्छे संबंध तथा भौतिक पर्यावरण के साथ अच्छे सम्बन्ध होने पर ही सफल जीवन आधारित है। केवल जन्तु तथा पौधे ही नहीं किन्तु आंखों से दिखाई न देने वाले सूक्ष्म जीव भी पर्यावरण का महत्वपूर्ण भाग हैं। मनुष्य को लाभदायक जीवाणु मानव शरीर की पोषक व संरक्षण क्रियाओं में भाग लेकर सहयोग देते हैं तथा हानिकारक जीवाणु (विषाणु) शरीर में रोग उत्पन्न करते हैं। .
__ पर्यावरण की रक्षा करके ही मनुष्य अपनी रक्षा कर सकता है। जैनधर्म के सिद्धान्त पर्यावरण की रक्षा से मूलभूत रूप से सम्बद्ध हैं और जैन समाज पर्यावरण के रक्षण में कर्मभूमीय सभ्यता के विकास के प्रथम चरण से ही अपना योगदान देता आया है। पर्यावरणरक्षण की भूमिका में आवश्यक है कि आधुनिक विज्ञान और जैन धर्म में पर्यावरण की प्राकृतिक व्यवस्था पर दृष्टिपात कर लें।
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