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मोहन-जोदड़ो : जैन परम्परा और प्रमाण
आचार्य श्री विद्यानन्द मुनि जी भारतीय जैन शिल्पकला का प्रयोजन क्या है और क्यों इसका इतना विकास हुआ-एक ऐसा विषय है, जिस पर काफी उन्मुक्त और युक्तियुक्त विचार होना चाहिए। जैनधर्म और दर्शन वैराग्यमूलक हैं। उनका सम्बन्ध अन्तर्मुख सौंदर्य से है, किन्तु यह जिज्ञासा सहज ही मन में उठती है कि क्या अन्तर्मुख सौंदर्य की कोई बाह्य अभिव्यक्ति संभव नहीं है ? क्या कोई काष्ठ, धातु या पाषाण-खण्ड अपने आप बोल उठता है ? संभव ही नहीं है, क्योंकि यदि किसी पाषाण-काष्ठ-खण्ड आदि को शिल्पाकृति लेनी होती तो वह स्वयं वैसा कभी का कर चुका होता, किन्तु ऐसा है नहीं। बात कुछ और ही है। जब तक कोई साधकाशिल्पी अपनी भव्यता को पाषाण में लयबद्ध/तालबद्ध नहीं करता, तब तक किसी भी शिल्पाकृति में प्राण-प्रतिष्ठा असंभव है। काष्ठ, मिट्टी, पत्थर, कांसा, ताँबा-माध्यम जो भी हो-चेतन की तरंगों का रूपांकन जब तक कोई शिल्पी उन पर नहीं करता, वे गूंगे बने रहते हैं।
मूर्ति जैनों के लिए साधना-आराधना का आलम्बन है। वह साध्य नहीं है, साधन है। उसमें स्थापना निक्षेप से भगवत्ता की परिकल्पना की जाती है। शिल्पी भी वही करता है। मोहन-जोदड़ो में जो सीलें (मुद्राएं) मिली हैं, वे भी साधन हैं, साध्य नहीं हैं, मार्ग हैं, गन्तव्य नहीं हैं, किन्तु शिल्प और कला, वास्तु और स्थापत्य के माध्यम इतने सशक्त हैं कि उनके द्वारा परम्परा और इतिहास को प्रेरक, पवित्र और कालातीत बनाया जा सकता है।
जैन स्थापत्य और मूर्ति-शिल्प का मुख्य प्रयोजन आत्मा-की-विशुद्धि को प्रकट करना और आत्मोत्थान के लिए एक व्यावहारिक/सुमधुर भूमिका तैयार करना है, इसलिए सौंदर्य, मनोज्ञता, प्रफुल्लता, स्थितप्रज्ञता, एकाग्रता, आराधना, पूजा आदि के इस माध्यम को हम जितना भी यथार्थमूलक तथा भव्य बना सकते हैं, बनाने का प्रयत्न करते हैं। इनमें भगवान भला कहाँ हैं ? कैसे हो सकते हैं ? फिर भी हैं और हम उन्हें पा सकते हैं। मूर्ति की भव्यता इसमें है कि वह स्वयं साधक में उपस्थित हो और साधक की सार्थकता इसमें है कि वह मूर्ति में समुपस्थित हो। इन दोनों के तादात्म्य में ही साधना की सफलता है।। ____मोहन जोदड़ो से प्राप्त सीलों (मुद्राओं) की सबसे बड़ी विशेषता है कला की दृष्टि से उनका उत्कृष्ट होना । शरीर-गठन और कला-संयोजन की सूक्ष्मताओं और सौंदर्य की संतुलित/आनुपातिक अभिव्यक्ति ने इन सीलों को एक
कला-संपूर्णता प्रदान की है। बहत सारे विषयों का एक साथ सफलतापूर्वक संयोजन इन सीलों की विशेषता है। __उक्त दृष्टि से भारत सरकार के केन्द्रीय पुरातात्त्विक संग्रहालय में सुरक्षित सील क्र. 620/1928-29 समीक्ष्य है। इसमें जैन विषय और पुरातथ्य को एक रूपक के माध्यम से इस खूबी के साथ अंकित/ समायोजित किया गया है कि वह जैन पुरातत्त्व और इतिहास एक प्रतिनिधि निधि बन गए हैं। न केवल पुरातात्त्विक अपितु इतिहास और परम्परा की दृष्टि से भी इस सील (मुद्रा) का अपना महत्व है।
इसमें दायीं ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान् ऋषभदेव हैं, जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है, जो रत्नत्रय (सम्यम्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) का प्रतीक है। निकट ही नतशीश हैं उनके ज्येष्ठ पुत्र चकवर्ती भरत, जो उष्णीष धारण किये हुए राजसी ठाठ में हैं। वे भगवान् के चरणों में अंजलिबद्ध भक्तिपूर्वक नतमस्तक हैं। उनके पीछे वृषभ (बैल) है, जो ऋषभनाथ का चिन्ह (पहचान) है। अधोभाग में सात प्रधान अमात्य हैं, जो तत्कालीन राजसी गणवेश में पदानुक्रम से पंक्तिबद्ध हैं।
चक्रवर्ती भरत सोच रहे हैं : 'ऋषभनाथ का अध्यात्म-वैभव और मेरा पार्थिव वैभव !! कहाँ है दोनों में कोई साम्य ? वे ऐसी ऊँचाइयों पर हैं जहाँ तक मुझ अकिंचन की कोई पहुँच नहीं है।' भरत की यह निष्काम भक्ति उन्हें कमल-दल पर पड़े ओस-बिन्दु की भाँति निर्लिप्त बनाये हुए है। वे आकिंचन्य-बोधि से धन्य हो उठे हैं।
'सर्वार्थसिद्धि' 1-1 (आचार्य पूज्यपाद) में कहा है : मूर्तमिव मोक्षमार्गवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तम् (वे निःशब्द ही अपनी देहाकृति मात्र से मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले हैं)। शब्द जहाँ घुटने टेक देता है, मूर्ति वहाँ सफल
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