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जेरण विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा न निव्वहइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो, रणमो अणेगंतवायस्स ॥
समणसुत्तं 660
जिसके बिना लोक का व्यवहार बिलकुल नहीं निभता है, उस, मनुष्यों के केवल मात्र गुरु, अनेकान्तवाद को नमस्कार ।
समणसुत्तं 660
Salutation to that Anekantavada which is the singular teacher of mankind, without which even the transaction of the world does not at all go on.
Samanasuttam, 660
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