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जैन दर्शन और विश्वशान्ति
प्राचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि
आधुनिक युग में विज्ञान ने जहां अनेक भौतिक सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं, वहां परमाणु प्रायुधों की निरन्तर अभिवृद्धि के कारण जगत् विनाश के कगार पर खड़ा है। विश्व के राष्ट्र पारस्परिक भय के कारण अपनी सुरक्षा हेतु विनाशकारी शस्त्रास्त्र पर खरबों रुपये खर्च कर रहे हैं। साथ ही विश्वशान्ति की बात भी कर रहे हैं। ऐसे भयाक्रान्त विश्व को शान्ति की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि इसके बिना प्रभावग्रसित, क्षुधापीड़ित करोड़ों मनुष्य दरिद्रता की चक्की में पीसे जा
विश्वशान्ति की स्थापना के लिए जैनदर्शन के अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण हैं। अहिंसा से विश्व-मैत्री का विकास होता है, इससे समस्त संसार प्रेम के स्वर्णसूत्र में बंध जाता है। अहिंसा से प्राणिमात्र के लिए स्नेह और सम्मान की भावना पाती है, जिससे सम्प्रदाय, जाति, धर्म आदि का भेद-भाव नहीं रहता, अखण्ड मानवता का बोध होता है। यही सूत्र विश्वसमाज की रचना करता है। अहिंसा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की आधारशिला है ।
अहिंसा का पालन अनेकान्तदर्शन से ही सम्भव है। जनदर्शन का दूसरा नाम अनेकान्तदर्शन है। किसी के प्रति कोई दुराग्रह नहीं, कोई हठ नहीं। सत्य के अनेक पक्ष हैं-समग्र दृष्टिकोणों से सत्य को परखने से सही स्वरूप प्रकट होता है, यही अनेकान्त दर्शन की खुबी है। इस विश्व में अनेक मत-मतान्तर हैं, अनेक धर्म हैं, सम्प्रदाय और जातियाँ हैं, सबके प्रति सद्भाव रखना अनेकान्त दर्शन का वैशिष्ट्य है । अनेकान्त दर्शन दुराग्रह को दूर कर शाश्वत सत्य को उजागर करता है। यदि जगत् के लोग एकान्तवाद (हठवाद) को छोड़कर अनेकान्तबाद अपनावें तो विश्वशान्ति निश्चित है।
जैनदर्शन का अपरिग्रह-सिद्धान्त-धन-सम्पत्ति के प्रति आसक्ति (मूी) नहीं रखना है। मनुष्य अपने भौतिक सुख-साधन जुटाने में दिन-रात एक कर रहा है, छल-कपट करता है। दूसरों को दुःख पहुंचाता है। यदि अपरिग्रह-सिद्धान्त को अपनालें तो वह धन-सम्पत्ति को नीति-न्याय से अजित करेगा, जितनी आवश्यकता होगी, उतनी ही सामग्री संचित करेगा, शेष सम्पत्ति को दानादि परोपकार में व्यय करेगा। धन-सम्पत्ति समाज की है-इसका स्वामित्व केवल धन-स्वामी का ही
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