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योग्यता-पूर्णता प्राप्त करली है वह है-अर्हत् । जिसने सब प्रकार की ग्रन्थियों से छुटकारा पा लिया है वह है निर्ग्रन्थ । जिन्होंने रागद्वेष रूपी शत्रुओं, आन्तरिक विकारों को जीत लिया है वे जिन कहे गये हैं और उनके अनुयायी "जैन" । इस प्रकार जैन धर्म किसी विशेष व्यक्ति, सम्प्रदाय या जाति का परिचायक न होकर उन उदात्त जीवन अादर्शों और सार्वजनिक भावों का प्रतीक है जिनमें संसार के सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भाव निहित है।
2-जैन धर्म में जो नमस्कार मंत्र है, उसमें किसी तीर्थकर, प्राचार्य या गुरु का नाम लेकर वंदना नहीं की गयी है। उसमें पंचपरमेष्ठियों को नमन किया गया है। णमो अरहताणं, णमो सिद्धारणं, णमो पायरियारणं, णमो उवज्झायारणं, णमो लोए सव्वसाहरणं, अर्थात् जिन्होंने अपने शत्रुनों पर विजय प्राप्त कर ली है, उन अरिहंतो को नमस्कार हो; जो संसार के जन्म-मरण के चक्र से छटकर शुद्ध परमात्मा बन गए हैं, उन सिद्धों को नमस्कार हो; जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप आदि प्राचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरों से करवाते हैं, उन प्राचार्यों को नमस्कार हो; जो आगमादि ज्ञान के विशिष्ट व्याख्याता हैं और जिनके सान्निध्य में रहकर दूसरे अध्ययन करते हैं, उन उपाध्यायों को नमस्कार हो; लोक में जितने भी सत्पुरुष हैं उन सभी साधुनों को नमस्कार हो; चाहे वे किसी जाति, धर्म, मत या तीर्थ से सम्बन्धित हों। कहना न होगा कि नमस्कार मंत्र का यह गुणनिष्ठ प्राधार जैन दर्शन की उदारचेता सार्वजनिक भावना का मेरुदण्ड है।
3-जैन दर्शन ने मात्मविकास को सम्प्रदाय के साथ नहीं बल्कि सदाचरण व धर्म के साथ जोड़ा है। महावीर ने कहा किसी भी परम्परा या सम्प्रदाय में दीक्षित, किसी भी लिग में, स्त्री हो या पुरुष, किसी भी वेश में, साधु हो या गृहस्थ, व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सकता है । उसके लिए यह प्रावश्यक नहीं कि वह महावीर द्वारा स्थापित धर्म संघ में ही दीक्षित हो । महावीर ने अश्रुत्वा केवली को जिसने कभी भी धर्म को सुना नहीं, परन्तु चित्त की निर्मलता के कारण, केवलज्ञान की कक्षा तक पहुंचाया है । पन्द्रह प्रकार के सिद्धों में अन्य लिंग और प्रत्येक बुद्ध सिद्धों को, जो किसी सम्प्रदाय या धार्मिक परम्परा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि अपने ज्ञान से प्रबुद्ध होते हैं, सम्मिलित कर महावीर ने साम्प्रदायिकता की निस्सारता सिद्ध कर दी है। प्राचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट किया है-"महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है और कपिल आदि के प्रति मेरा द्वेष भाव नहीं है। मैं उसी वारणी को मानने के लिए तैयार हूं जो युक्ति-युक्त है।"
वस्तुतः धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्म के सत्य से साक्षात्कार करने की तटस्थ वृत्ति से है। निरपेक्षता अर्थात् अपने लगाव और दूसरों के द्वेष भाव से परे रहने की स्थिति । इसी अर्थ में जैन दर्शन में धर्म की विवेचना करते हए वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है। जब महावीर से पूछा गया कि आप जिसे नित्य ध्र व और शाश्वत धर्म कहते हैं वह कौनसा है ? तब उन्होंने कहा-किसी प्राणी को मत मारो, उस पर उपद्रव मत करो, किसी को परिताप न दो और किसी की स्वतन्त्रता का अपहरण न करो। इस दृष्टि से जो धर्म के तत्व हैं प्रकारान्तर से वे ही जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के तत्व हैं।
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