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जैन श्रायुर्वेद : समीक्षा और साहित्य
जैन आगमों में वैद्यकविद्या को भी प्रतिष्ठापित किया गया है । अत: इसे धर्मशास्त्र की कोटि में रखा गया है । अद्यावधि प्रचलित 'उपाश्रय " ( उपासरा) प्रणाली में जहां जैन यति-मुनि सामान्य विद्यानों की शिक्षा, धर्माचरण का उपदेश और परम्पराम्रों का मार्गदर्शन करते रहे हैं, वहीं वे उपाश्रयों को चिकित्सा केन्द्रों के रूप में समाज में प्रतिष्ठापित कराने में भी सफल हुए हैं।
श्रायुर्वेद शब्द "आयु" और "वेद" इन दो शब्दों से मिलकर बना है । "आयु" का अर्थ हैजीवन और वेद का ज्ञान । श्रर्थात् जीवन प्राण या जीवित शरीर के सम्बन्ध में समग्र ज्ञान "आयुर्वेद" नाम से अभिहित किया जाता है। जैन आगम साहित्य में चिकित्सा शास्त्र को "प्राणावाय" कहते हैं । यह पारिभाषिक संज्ञा है । जैन तीर्थंकरों की वाणी अर्थात् उपदेशों को 12 भागों में बांटा गया है, इन्हें जैन आगम में " द्वादशांग" कहते हैं । इनमें से अंतिम अंग " दृष्टिवाद" कहलाता है । दृष्टिवाद के पांच भेद हैं- पूर्वगत, सूत्र, प्रथमानुयोग, परिकर्म और चूलिका । " पूर्व" चौदह हैं । इनमें से बारहवें "पूर्व" का नाम " प्राणावाय" है । " प्राणावाय" की परिभाषा बताते हुए दिगम्बर श्राचार्य " अकलंकदेव" ( 8वीं शती) ने लिखा है
डॉ० राजेन्द्र प्रकाश भटनागर
" जिसमें कायचिकित्सा श्रादि आठ अंगों के रूप में सम्पूर्ण आयुर्वेद, भूतशान्ति के उपाय, विषचिकित्सा और प्रारण प्रपान प्रादि वायुनों के शरीर धारण करने की दृष्टि से विभाजन का प्रतिपादन किया गया है, उसे "प्रारणावाय" कहते हैं ।"
इस प्रकार इस पूर्व में मनुष्य के ग्राभ्यंतर अर्थात् मानसिक और आध्यात्मिक तथा बाह्य अर्थात् शारीरिक स्वास्थ्य के उपायों, जैसे-यम, नियम, आहार, विहार और औषधियों का विवेचन है । साथ ही, इसमें दैविक, भौतिक, प्राधिभौतिक तथा जनपदोध्वंसी रोगों की चिकित्सा का विस्तार से विचार किया गया है ।
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जैन ग्रन्थ " मूलवातिक" में श्रायुर्वेद प्रणयन के सम्बन्ध में कहा गया है- "अकाल, जरा और मृत्यु को उचित उपायों द्वारा रोकने के लिए आयुर्वेद का प्रणयन किया गया है ।"
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