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विविध भारतीय भाषाओं के क्रमशः विकास की कड़ियों की सुरक्षा में जैनों का अद्वितीय प्रदान
डा. के. प्रार. चन्द्र
जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म रहा है। अतः उसका साहित्य अहिंसा, अपरिग्रह एवं वैराग्य के उपदेशों से प्रोतप्रोत है। अपने धर्म प्रचार को जन-जन के हृदय तक पहुंचाने के लिए जैनों ने अपने उपदेशों एवं साहित्य में जन-प्रचलित भाषामों का उपयोग अधिक मात्रा में किया है। उच्च वर्ग एवं विद्वानों तक अपने सिद्धान्तों का प्रचार हो इस प्रयोजन से संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना करने में भी जैन लोग पीछे नहीं रहे. फिर भी यह वर्ग सीमित था। अत: विशाल सामान्य जनता को ध्यान में रखकर उन्होंने जन-भाषामों यानि विविध प्राकृत भाषामों का उपयोग विपूल मात्रा में किया है।
जिन-जिन प्राकृत भाषाओं में जैन साहित्य उपलब्ध है, वे हैं अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश, अवहट्ठ । इसके अतिरिक्त अनेक आधुनिक भाषामों (आर्य एवं द्रविड) में भी मुख्यतः प्रारम्भिक साहित्य जैनों का ही मिलता है और उस साहित्य को निकाल दिया जाय तो उन भाषाओं का प्रारम्भिक स्वरूप क्या था यह शायद ही जाना जा सकता है। काल-परिमारण यदि ध्यान में लिया जाय तो ई० स० पूर्व पांचवीं शताब्दी से ई० स० की सतरहवीं शताब्दी तक जैनों ने विविध जन-भाषाओं में साहित्य का निर्माण किया है और इस प्रकार दो हजार से भी अधिक वर्षों तक जन-प्रचलित विभिन्न भाषामों के विकास का क्रमवार इतिहास इस साहित्य में सुरक्षित है।
साहित्य की जितनी विधाएं संस्कृत भाषा में उपलब्ध हैं उतनी ही प्राकृत भाषाओं में भी मिलती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कृत के साथ-साथ समानान्तर रूप से प्राकृत भाषामों में भी विविध प्रकार के साहित्य की रचना करने में जैन लोग पीछे नहीं रहे। जैनों का प्राचीनतम साहित्य अर्धमागधी एवं शौरसेनी पागम साहित्य है । इन दोनों भाषामों में जिन-जिन विषयों पर साहित्य उपलब्ध है वे इस प्रकार हैं--स्व-सिद्धान्त, पर-सिद्धान्त, दर्शन, मुनि-पाचार, श्रावकाचार, भिक्षा-विधि, नय एवं ध्यान, कर्म सिद्धान्त, ज्ञान-चर्चा, पाराधना, तपश्चर्या, प्रायश्चित, भूगोलखगोल, ज्योतिष, सामुद्रिक-शास्त्र, निमित्त-शास्त्र, कथानक इत्यादि । इस साहित्य में प्रर्धमागधी
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