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दूसरों को तन, मन, वचन, धन आदि द्वारा दुःख और कष्ट की ज्वाला में धकेल दें। "प्राचारांग" ने सबसे पहले स्व-अस्तित्व और पर-अस्तित्व की बात कहकर मनुष्य को संवेदनशील बनाने का प्रयास किया है, और संवेदनशीलता द्वारा वह अशांति, तनाव, घुटन, कुण्ठा, हीनता, शोषण, अत्याचार से शीघ्र मुक्ति प्राप्त कर सकता है, क्योंकि अाधुनिक संदर्भो में अपने द्वारा निर्मित इन्हीं अभिशापों में आज मनुष्य बुरी तरह परिग्रस्त है । हिंसा का निषेध करते हुए "प्राचारांग" में कहा गया है-- "मनुष्य वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, आदर तथा पूजा प्राप्त करने के लिए, दुख के प्रतिकार के लिए, प्राणियों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है या प्राणियों की हिंसा का अनुमोदन करता है, ऐसी हिंसा उस मनुष्य के अहित में ही होती है।" भला हम दूसरों को घृणित नीच क्यों समझे? महावीर का कहना है - "कोई हीन या नीच नहीं है, कोई उच्च नहीं है, अर्थात् सभी समान हैं।" जब प्रात्माएँ एकसी हैं तो सभी एक समान हैं। जो व्यक्ति अहिंसक होता है वह समता का आचरण करता है, वह न हिंसा करता है, न हिंसा कराता है, न उसका अनुमोदन करता है । जब तक मनुष्य में समता का या प्रात्म-दृष्टि का उदय नहीं हो जाता, तब तक शांति नहीं मिल सकती, जन्म-मरण से छुटकारा नहीं मिल सकता । बिना प्रात्म-दृष्टि के शांति कैसी, बिना अहिंसा के शांति कहां, प्रात्मोदय कहां, मोक्ष कहां ?
___ मनुष्य सुख-वैभव प्राप्त करने के लिए इच्छाओं, तृष्णामों के पीछे भागते है, उनकी पूर्ति में रात-दिन व्यग्र रहते हैं, ऐसे मनुष्य अंधकार में रहते हैं। वे अज्ञानता से भरे रहने के कारण दूसरे प्राणियों को, मनुष्यों को दुःख देते हैं । इच्छाओं को पूर्ण करने में मनुष्य की प्रासक्ति अधिक रहती है इसलिए हिंसा की जाती है।
"प्राचारांग" मैत्री का संदेश देता है और जहां मैत्री है वहां प्रेम है, दया है, करुणा है, समानता है, एकता है । मनुष्य अपना शत्रु और मित्र स्वयं है। कहा गया है-“हे मनुष्य ! तू अपना मित्र आप है, बाहर की ओर मित्र की खोज क्यों करता है" ? जो उच्च मूल्यों में जमा हुआ है, वह मोह और आसक्ति से दूर जमा हुआ है, जिसे आसक्ति से दूर जानो, उसे उच्च मूल्यों में जमा हा समझो।" इस प्रकार प्राध्यात्मिक जागृति प्रदान करने वाला अहिंसा-भाव है। इसे जैन धर्म का प्राण और मनुष्य का ध्येय माना जाता है।
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग इस्लामिया कालेज, श्रीनगर (कश्मीर)
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