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जनसंख्या दिवा नैतिक पर्यावरण पर प्रभाव मारता के संदर्भ में
आज भारत जिस दौर से गुजर रहा है, आबादी को बाद एक खतरनाक असलियत बन चुकी है। इस भयावह इदि ने स्बय सिद्ध मांग एवम् पूर्ति के सिद्धांत को डगमगा
माल्यस दिया है। वर्तमान परिपेक्ष्य में माल्हासक का यह कथन 'प्रकृति को मेज सीमित अतिथियों के लिये लगी हैं, जो भी लोग बिना बुलार आयेगें उन्हें भूखा मरना पडेगा सही प्रतीत होने लगा है । गरीबी , भुवा बेरोजगारी सभी ने मिलकर नैतिक भूमंडल में दरारें पैदा कर दी है । आबादी में गुणात्मक गिराष्ट रसातल तक पहुंच गई है चाहे सामाजिक क्षेत्र हो या राजनैतिक, धार्मिक सभी संकीर्ण नजरिये ने नैतिक मूल्यों को चोट पड्डयाई ।
अवसाद
देश की बढती जनसंखया ने सामाजिक बिघटन को जन्म दिया है, समाज में स्थापित मापदण्डो को दबझोरा जन कल की इस भीड में व्यक्ति निज स्वार्थ रम गया है संवेदनशीलता लुप्त हो गई हैं सहनशीलता का वात्मा हो गय व्यक्ति संवों का सामना करने के बजाय तनाव मानसिक तनाब, लायन नशाखोरी
आत्महत्या जैसी दुष्पवृत्तियों का शिकार हो रहा है : साधनों की अपेक्षाकृत कमी ने पारस्थारिक विदेष रघम् विषमता को जन्म दिया है अनैतिक स्य से एकत्रित सम्पत्ति के परिणामस्वरूप एक और नवधनाड्डयों को बिनासी उन्माद हैं तो दूसरी ओर निम्नतमस्तर का जीवनयापन करने वाले गरीबों के क्लिासिता के आकर्षण ने कई नई बीमारियों को आमंत्रित किया है। जई राजनैतिक स्प से वोट को कक्षा ने भीड़ को बढाया है वही धार्मिक ठेकेदारों ने अपने अनुयायियों की संख्या में वृद्धि देव अपनी शक्ति को प्रदर्शित किया है। ये सभी विल औजार आज नतिक पर्यावरण को आधात पहुंचा रहे हैं । सका नातिक मूल्यों को दिखावटी वस्तु बना सहेज रखा ।
देशा के उपरोक्त परिदृश्य को बदलना समय की मांग है नैतिक पर्यावरण को यदि नही सुधारा गया तो हमारी सभ्यता , संस्कृति कलुषित हुए बिना नही रख रह सकती इस संदर्भ में जनसंख्या शिक्षा का प्रचार प्रसार करना अत्यन्त आधयक है । शासन के प्रयास के अतिरिक्त क्षणिक स्वंय सेवी संस्था अशासकिय संस्थार धार्मिक औपचारिकेत्तर संस्था इसमें अपनी सहभागिता निभाय । फल स्वस्थ समाज का पूर्णतः उपेक्षित और हाशिशर पर गये हुए वर्ग तक इनकेण यास पहुँ ।
प्रस्तुत शोध आलेख में व्यवहारवादी अनुसंधान के सहारे जनसंख्या और नातिक पर्यावरण के बीच संतुलन कायम करने का प्रयास किया है ।
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