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________________ और शत्रु है। सुप्रस्थित आत्मा मित्र है और नहीं है। आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह दुःप्रस्थित प्रात्मा शत्रु है । अतः सुख-दुःख की खोज तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों पदार्थों में न कर आत्मा में करना है। जैन की पूर्णतया उपेक्षा की जावे । जैन धर्म के अनुसार आचार्य कहते हैं कि यह ज्ञान-दर्शन स्वरूप शाश्वत शारीरिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक आत्म तत्व ही अपना है। शेष सभी संयोगजन्य हैं। निशीथ भाष्य में कहा गया है कि मोक्ष पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं, अपने नहीं हैं। इन का साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर सायोगिक उपलब्धियों में ममत्व बुद्धि दुःख-परम्परा का प्राधार आहार है। शरीर शाश्वत् प्रानन्द के का कारण है, अतः प्रानन्द की प्राप्ति हेतु इनके । कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से प्रति ममत्व बुद्धि का सर्वथा त्याग करो । संक्षेप उसका मूल्य भी है, महत्व भी है और उसकी में देहादि अात्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का सार-सम्भाल भी करना है। किन्तु ध्यान रहे दृष्टि त्याग और भौतिक उपलब्धियों के स्थान पर नौका पर नहीं कूल पर होना है, नौका साधन है आत्मोपलब्धि अर्थात् वीतराग दशा की उपलब्धि साध्य नहीं । भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं को जीवन का निःश्रेयस स्वीकार करना प्राध्यात्म- की एक साधन के रूप में स्वीकृति जैन धर्म और विद्या और जैन धर्म का मूल तत्व है और यही सम्पूर्ण आध्यात्म विद्या का हार्द है। यह वह मानव जाति के मंगल का मार्ग है। क्योंकि इसीके विभाजन रेखा है जो आध्यात्म और भौतिकवाद द्वारा आधुनिक मानस को आन्तरिक एवं बाह्य में अन्तर स्पष्ट करती है। भौतिकवाद में भौतिक तनावों से मुक्त कर निराकुल बनाया जा उपलब्धियां या जैविक मूल्य स्वयमेव साध्य है, सकता है। अन्तिम है, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का साधन है । जैन धर्म की भाषा में कहें तो क्या जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है साधन के द्वारा वस्तुओं का त्याग और वस्तुओं का जैन धर्म में तप-श्याम की जो महिमा गायी ग्रहण, दोनों ही संयम (समत्व) की साधना के गई है उसके आधार पर यह भ्रान्ति फैलाई जाती लिए है । जैन धर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य है कि जैन धर्म जीवन का निषेध सिखाता है अतः तो एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम और यहां इस भ्रान्ति का निराकरण कर देना अप्रा- वीतराग मानस की अभिव्यक्ति है जो कि वैयक्तिक संगिक नहीं होगा कि जैन धर्म के तप-त्याग का .. एवं सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों अर्थ शारीरिक एवं भौतिक जीवन की अस्वीकृति को समाप्त कर सके। उसके सामने मूल प्रश्न 1. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण सुहाण य । अप्पा मित्तममित्त च दुप्पट्ठिय सुपट्ठिय ॥-उत्तराध्ययन सूत्र 20137 2. एगो मे सासो अप्पा णाण दंसण संजुप्रो । सेसा मे बहिरा भावा सव्वे संजोग लक्खणा ।। संजोग मूला जीवेण पत्ता दुक्खपरम्परा । तम्हा संजोग सम्बन्धं सव्व भावेण वोसिरे ।।----पातुर प्रकरण 26127.. 3. मोक्खप्प साहण हेतु णाणादि तप्प साहणो देहो। देहट्टा आहारो तेण तु कालो अरगुण्णातो ॥-निशीथभाष्य 47191 1-52 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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