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________________ प्राप्त हो सकता है तथा उन्होंने टीका लिखी भी पत्र शक सं0 719 का है तो प्रभाचंद के दादा पूर्व के तीन खण्डों पर ही है। 2. आचार्य इन्द्र- गुरु शक सं० 600 के लगभग रहे होंगे क्योंकि वे नंदि का कहना है कि कुन्दकुन्दाचार्य को यति- कुन्दकुन्दान्वय में हुए हैं अतएव कुन्दकुन्द का समय वृषभाचार्य कृत कषाय प्राभूत के चूणि सूत्र प्राप्त उनसे 150 वर्ष पूर्व अर्थात् 450 आता है । उनकी थे । यदि इस बात को सत्य माना जावे तो अवश्य दूसरी युक्ति यह है कि कुन्दकुन्दाचार्य ने जिस शिवइनका समय काफी पीछे लाना पड़ता है, क्योंकि कुमार के लिये पंचास्तिकाय शास्त्र रचा था, वे यतिवृषभाचार्य का काल ई.540-609 स्वीकार राजा शिवकुमार कादुम्बवंशी शिवमृगेश वर्मा ही किया गया है । परंतु धवला की प्रस्तावना में डा० हैं। जिनका समय श० सं० 450 हैं । अतः उनकी हीरालालजी जैन इन्द्रनंदि की इस बात को प्रामा- दोनों युक्तियों से कून्दकून्द का काल शक सं0 450 णिक नहीं मानते हैं । 3. कुछ विद्वानों का कहना वि० सं० 585 ठहरता है। 5. परन्तु प्रेमीजी है कि पट्टावली में इनका समय वि० सं० 49-101 इसको स्वीकार नहीं करते । उनकी दृष्टि में कुन्ददिया गया है और इस प्रकार इन्हें षट्खण्डागम कुन्द इतने पीछे के प्राचार्य नहीं हो सकते । शिवकी प्राप्ति असंभव है परन्तु उनकी इस शंका का कुमार शिवमृगेश वर्मा ही थे इसका भी पुष्ट समाधान भी इस प्रकार कर दिया गया समझ लेना प्रमाण नहीं है। और तोरणाचार्य कुन्दकुन्द के चाहिये कि पट्टावली में विक्रम सं० की अपेक्षा अन्वय में 150 ही वर्ष पश्चात् हुए होंगे, इसका काल नहीं दिया गया है, उसका अर्थ शालिवाहन भी कोई प्रमाण नहीं है । क्योंकि 300 या 400 विक्रम अर्थात् शक संवत् है न कि प्रचलित विक्रम वर्ष के पश्चात् क्या हजारों वर्ष पश्चात् के संवत् । 4. डा० के. बी. पाठक राष्ट्रकूटवंशी प्राचार्य भी अपने को कुन्दकुन्दा वय का बता सकते गोविन्द तृतीय के समय में श. सं. 724 व 719 हैं। क्योंकि उनके अन्वय में अपने को बताना उनके के दो ताम्रपत्रों के प्राप्ति के आधार पर इनका लिये गौरव का कारण है। समय वि० सं० 585 के लगभग सिद्ध करते हैं। इन दोनों ताम्रपत्रों का अभिप्राय यह है कि कोण्डकुन्दान्वय के तोरणाचार्य नाम के मुनि इस राष्ट्र- नंदि संघ की गुर्वावली के अनुसार उमास्वामी कूट देश में शाल्मली नामक ग्राम में रहे । इनके आपके शिष्य थे। उमास्वामी का समय शक सं० शिष्य पुष्पनंदि और पुष्पनंदि के शिष्य प्रभाचंद 101-142, ई. सन् 179-120 है । अतः उक्त हुए । पाठक महोदय का कथन है कि पिछला ताम्र- समय ही ठीक बैठता है 10. * महावीर ने कहा था * - धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो । अहिंसा, संयम, तपरूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है । सव्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविउन मरिज्जि। सब जीव जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता। महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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