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________________ एलाचार्य, गृद्धपिच्छ और पद्मनंदि । मूल नंदिसंघ की पट्टावली में उनके नामों का उल्लेख हैं आचार्य कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः । एलाचार्यो गृद्धपिच्छः पद्मनंदि वितायते ।। पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति टीका के मंगलाचरण में— श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य देवैः पद्मनन्द्याद्य पटाभिधेयैः 'श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्यदेव, जिनके कि पद्मनंदि आदि अपर नाम भी थे। दूसरे नामों का उल्लेख चन्द्रगिरि शिलालेख में— 'श्री पद्मनंदीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तर कौण्डकुन्दः । श्री पद्मनंदि ऐसे अनवद्य नाम वाले प्राचार्य जिनका नामान्तर कौण्डकुन्द था । षट्प्राभृत मो. प्रशस्ति पृ. 379 में 'इति श्रीपद्मनंदि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रग्रीवाचार्यैलाचार्य, afपिच्छाचार्य नामपञ्चक विराजितेन इस प्रकार श्रीपद्मनंदि, कुन्दकुन्दचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य नाम पंचक से विराजित.... पांच नामों का कारण (१) पद्मनंदि - नंदिसंघ की पट्टावली में इनके गुरु जिनचन्द प्राचार्य के पश्चात् पद्मनंदि का नाम माता है इससे निश्चय होता है कि इनका दीक्षा नाम पद्मनंदि श्रा । (२) कुन्दकुन्द -- कोण्डकुण्ड नगर में इनका जन्म होने से इनको कुन्दकुन्द कहते थे । ( ३ ) एलाचार्य - मूलाचार में जिनदासपार्श्वनाथ फडकुले शास्त्री ने लिखा है कि कुन्दकुन्दाचार्य विदेह क्षेत्रस्थ श्रीभगवान् सीमंधरस्वामी के समवसरण में गये थे, जहां के मनुष्यों की ऊँचाई 500 धनुष की है और इनका शरीर कुल 31 ( साढ़े तीन ) हाथ का था। वहां का चक्रवर्ती इन्हें देखकर इलायची की तरह उठाकर हाथ पर रख लेता है । इनका परिचय पाने पर इन्हें नमस्कार कर चक्रवर्ती ने इनका नाम एलाचार्य रख दिया। कुरलकाव्य में श्रीनाथूरामजी प्रेमी महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International और एम. ए. रामस्वामी आयंगर ने भी इनको एलाचार्य और कुन्दकुन्दाचार्य एक ही है यह प्रसिद्ध किया है । (४) गुद्धपिच्छ - के विषय में मूलाचार में जिन दासपार्श्वनाथ फडकुले शास्त्री के अनुसार विदेह क्षेत्र से लौटते समय इनकी पिच्छी समुद्र में गिर गई थी, तब गृद्धपक्षी के पंख हाथ में लेकर लौट आये थे । इसीसे इनका नाम गृद्धपिच्छ चल गया था । ( ५ ) वक्रग्रीव - मूलाचार की भूमिका के अनुसार सीमंधर के समवसरण में ऊपर को देखते रहने से इनकी ग्रीवा टेड़ी हो गई थी, इसीसे इनका नाम वक्रग्रीव पड़ गया था । (६) वट्टकेरिमूलाचार नाम के दो ग्रंथ उपलब्ध हैं इनमें से एक के रचयिता का नाम वट्टकेरि दिया है तथा दूसरे में कुन्दकुन्द । दोनों ग्रंथों में मात्र कुछ गाथाओं को छोड़कर शेष समान ही है । इससे पता चलता है कि दोनों रचनाएँ एक ही हैं तथा आपका एक नाम 'वट्टकेरि' भी हो | ऋद्धिधारी—जैन शिलालेख संग्रह में लिखा है - तस्यान्वये भूविदिते वभूव यः पद्मनंदि प्रथमाभिधानः | श्री कौन्डकुन्दादि मुनीश्वरस्य सत्संयमादुद्गतचारणद्धिः 14:1 श्रवणबेलगोला के नेक शिलालेखों में बताया है कि आपको चारणऋद्धि तथा जमीन से चार अंगुल ऊपर अंतरिक्ष में चलने की शक्ति प्राप्त थी । शि० ले० नं 40 / 64 1 इसी प्रकार शिलालेख नं० 62, 64, 66, 67, 254, 261 पृ० 263-266 में कुन्दकुन्दाचार्य वायु द्वारा गमन करते थे, यही घोषित किया है । जैन शिलालेख संग्रह पृ० 197-198 में लिखा है- रजोभिरस्पष्ट तमन्वमन्त र्बाह्यापि सव्यञ्जचितुं यतीशः । रजः पदं भूमितलं : विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गलंसः ॥ यतीश्वर कुन्दकुन्द देव रजस्थान और भूमितल को छोड़कर चार अंगुल ऊंचे प्रकाश में चलते 3-3 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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