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________________ अंग्रेजों का अंध अनुकरण करने में ही अपना सौभाग्य समझते हैं । वे भले ही ऐसा करने में अपना गौरव समझें और सौभाग्य माने, पर वास्त विकता यह है कि उनका यह कृत्य राष्ट्र के लिए अपमान है, दुर्भाग्य है, शाप है, क्योंकि उससे भारतीय प्रजा में अपनी संस्कृति के प्रति हीनता का भाव उत्पन्न होता है और उससे मानसिक गुलामी की श्रृंखला मजबूत होती है ।" इसी परिप्रेक्ष्य में उन्होंने अंग्रेजी का खुला विरोध किया। देशी भाषाओं को दासी बनाने वाली, भारतीय संस्कृति को विकृत करने वाली और आर्य संस्कारों को धूमिल करने वाली अंग्रेजी के विरोध की सिंहगर्जना करते हुए उस साधु पुरुष ने कहा कि ऐसी भाषा से मैं अपने विरोध की घोषणा करता हूं और अपने श्रोताओंों को विरोधी बनने का परामर्श देता हूं।" स्वदेशी के प्रचार में भी उनकी भूमिका स्मरणीय रहेगी। उन्होंने कहा कि स्वदेशी को अपनाना अपने देश का ही सम्मान करना है उसका गौरव बढ़ाना है । विदेशी भाषा और विदेशी वस्तुनों के मोहान्ध लोगों को फटकारते हुए उन्होंने कहा कि ऐसा करके हम अपनी भारत जननी का ही अपमान करते हैं । आपके ये उद्गार कि – 'स्वदेश का उद्धार उसी दिन से प्रारम्भ होगा, जिस दिन देशवासी स्वदेशी वस्तुओं का व्यवहार करना सीखेंगे', वर्तमान संदर्भ में कितने खरे प्रमाणित हो रहे हैं, इसे कौन नहीं जानता ? 'स्वदेशी' को तिरस्कृत करके हमने तस्करी को बढ़ावा दिया । आज जब हम तस्करी का उन्मूलन करके स्वदेशी की प्राणप्रतिष्ठा कर रहे हैं तब उनकी यह भविष्य वाणी अनायास ही याद हो प्राती है जब उन्होंने कहा था - " विदेशी वस्तुयों का विक्रय बन्द हो जाय और विदेशी वस्तुनों के व्यवहार का प्रचार बन्द हो जाय तो राष्ट्र के लाखों-करोड़ों गरीबों महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International को, जिन्हें पहनने को वस्त्र और खाने को भरपेट अन्न नहीं मिलता, अन्न-वस्त्र मिल सकता है। इस प्रकार स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार से करोड़ों भारतीयों को सुख-शांति पहुँचायी जा सकती है । आचार्य जवाहरलालजी के राष्ट्रधर्म का एक महत्वपूर्ण अंग था उनका समाज सम्बन्धी दृष्टिकोरण, उनका सामाजिक दायित्व निर्वाह । इतिहास में वे क्रांतिकारी समाज सुधारक के रूप में भी अमर रहेंगे । पुण्यों के बल पर धनी हो जाने की धारणा पर उन्होंने प्रहार किया। समाज की आर्थिक विषमता उन्हें असह्य थी । देश की स्वतन्त्रता के मार्ग में यह वैषम्य और तद्जनित बुराइयाँ प्राड़े आती थीं । अतः उन्होंमें आपमें अनुयायी धनाढ्य वर्ग को न्याय, धर्म और समानता को जीवन में उतारने का उद्बोध दिया । समाजवादी व्यवस्था के सूत्र बिखेरते हुए उन्होंने कहा कि सम्यग् दृष्टि का लक्ष्य यही है कि वह अपनी सम्पत्ति परोपकार के लिए समझे और आप उससे अलहदा रहता हुआ अपने को ट्रस्टी अनुभव करे ।” यदि धनिक समाज ने अपनी ट्रस्टी की भूमिका नहीं निभाई, तो सचेत करते हुए उन्होंने कहा कि उसे एक ऐसी क्रांति का सामना करना पड़ सकता है जो कभी प्रार्थिक वैषम्य के दुर्ग की ईंट बजा कर रख देगी। क्या आज हम उस चेतना को चरितार्थ होते हुए नहीं देख रहे हैं ? ऐसी कल्पना घोषणा और योजना प्राचार्य जवाहर जैसे क्रांतदर्शी सात्विक महापुरुष ही कर सकते थे । सामाजिक कुरीतियों पर भी उन्होंने प्रहार किये । पैसों के लालच में पड़कर अपनी फूल - सी कोमल कन्याओं की तरुणाई को बूढ़ों के जर्जर हाथों में सौंपने वाले क्रूर माता-पिताओं को उन्होंने श्राड़े हाथों लिया और अनमेल विवाह के दुष्कर्म को हमेशा के लिए मिटा डालने की उन्हें हितकारी सीख दी । For Private & Personal Use Only 2-85 www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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