SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शाहदरा की रत्नत्रय चतुर्विंशतिका श्री कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल शाहदरा, दिल्ली अब से लगभग 40-50 वर्ष पूर्व जमना पार केवल शाहदरे में ही एक विशाल शिखरबद्ध जैन मन्दिर था, अब तो जैन मन्दिरों की संख्या काफी हो गई है । पर ऐतिहासिक दृष्टि से इस मन्दिर का बड़ा महत्व है, कहते हैं कि ला० हरसुखरायजी जब धर्मपुरे का नया मन्दिर बनवा रहे थे तभी इस मन्दिर की नींव पड़ी थी, और हस्तिनापुर के दि० जैन मन्दिर के निर्माण में उनका जैसा अपूर्व ऐति हासिक सहयोग था उसी तरह इस मन्दिर के निर्माण में भी उनका अपूर्व सहयोग प्राप्त हुआ था । इस मन्दिर में एक भव्य विशाल प्रांगण है जिसके पूर्व भाग में जिनालय है और शेष तीनों तरफ बड़ी-बड़ी दहलाने हैं। जिनालय में पांच वेदियां हैं । मूलवेदी मध्य में स्थित है और पंचमेरु के आकार की बड़ी आकर्षक है जिसमें मूलनायक प्रतिमा भ० पार्श्वनाथ की है जो लगभग दो फुट ऊंची पाषाण की है । यह वैसाख सुदी 8 सं. 1548 में प्रतिष्ठित हुई थी । किन्ही भट्टारकजी का नामोल्लेख भी है पर पढ़ा नहीं जाता। मूल वेदी से दाहिनी ओर दो वेदियां है और दो वेदियां बाई र भी हैं । दाहिनी ओर की प्रथम वेदी में एक महत्वपूर्ण कलाकृति विद्यमान है जिसका नामोल्लेख इसी कृति में 'रत्नत्रय चतुर्विंशतिका' शीर्षक से उत्कीर्ण है । इसी श्रेष्ठ कृति के लिए यह लेख तैयार किया गया है । यह श्रेष्ठ कलाकृति इस मन्दिर की सर्वश्रेष्ठ धरोहर है । महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International शाहदरा की 'रत्नत्रय चतुर्विंशतिका' पीतल की बनी हुई है और इसका वजन भी लगभग दो किलो तो होगा ही। इसकी ऊंचाई लगभग एक फुट और चौड़ाई लगभग पौन फुट (नौ इंच) होगी । चित्र संलग्न है । इसमें शांति, कुथु और अरनाथ इन तीन तीर्थंकरों की खड्गासन प्रतिमाएं मूल रूप से ढाली गई हैं जिन्हें 'रत्नत्रय' की उपाधि से अलंकृत किया गया है फिर इन तीनों प्रतिमानों के अगल बगल एवं ऊपर नीचे चौबीस तीर्थंकरों की चौबीस छोटी-छोटी पद्मासन प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं अतः इन्हें 'चतुर्विंशतिका' नाम दिया गया । इस तरह संपूर्ण कृति 'चतुर्विंशतिका' नाम से विख्यात है । इसके पृष्ठ भाग में मूर्ति लेख भी उत्कीर्ण है जो निम्न प्रकार है "सं० 1516 वर्षे वैसाख सुदी 15 सोमवार श्री मूलसंधे कुन्दकुन्द आम्नाए भट्टारक श्री सकलकीर्ति देवास्तत्पदे भट्टारक श्री भुवनकीर्तिजी तत्पाद प्रासादार्थ हूमडवंशी श्रेष्ठी लखमसी भार्या लाखु जैसिंह भार्या दोषी द्वितीय सुत सा भार्या भटकु तृतीय बना भार्या बानु सुत गोपालदासेन श्री रत्नत्रय चतुर्विंशतिकाम् नित्यम् प्रणमति विनयेन" इसी वेदिका में दस प्रतिमाएं और दो यंत्र भी हैं, जिनमें से एक धातु की प्रतिमा भ० चन्द्रप्रभ की आठ इंच ऊंची सं० 1755 की तथा दूसरी भ० चन्द्रप्रभ की शुभ्र पाषाण की लगभग सं० 1500 की है जो स्पष्ट नहीं पढ़ा जाता । एक For Private & Personal Use Only 2-49 www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy