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________________ (६/१२५).-घर खाने को दौड़ता है, 'पातपो रक्षा रक्षायते शीर्षे येणी वेणचिते शुचा । निपतति' (१२/३) --धूप पड़ती है, 'एवमेकस्य त्वां बिना देव देवान्मे विग्रहो विग्रहायते ।। ६/१२६ पृष्ठे किं त्वं कोश्ये पतिता जडे' (१०/७)-एक वेश्या की व्यथा का संकेत करने के लिये कवि ही के पीछे क्यों पड़ी है ? आदि कई प्रयोग हैं। काव्य में कोट्ट, खाला, जंजाल, ठगविद्या, गुलाल, ने शब्दों के साथ खिलवाड़ भी किया है। सन्तोष लप्रश्री, लड्डुकाः, पर्पट (पापड़) आदि देशी शब्दों यह है कि ऐसे पद्य संख्या में अधिक नहीं है और न को उदारतापूर्वक स्थान दिया गया है। काव्य की ही उनमें क्लिष्टता है। प्रस्तुत पद्यों में कुछ अक्षरों प्रभावशालिता में वृद्धि करने के लिये सूरचन्द्र ने का लोप करके ही कोश्या की विरहावस्था का भान कुछ लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया है। उनमें से होता है। कुछ बहुत मार्मिक है। इभयानोन्नतकुचा राजीवपाणिरीश्वरी । १-महतां वृत्तं श्रुतं भवति शर्मणे । ७/४ तथा शिखरदशनाऽमृतवाक् मनोरमा ।। ६/१२२ २–दृष्टा बहि- शुद्धा हृदिद्रो हपराः । १०/१५६ सति त्वयोडशी स्वामिन्न भवं तु गते त्वयि । ३-रागिणो न विचारिणः । १२/१६ सप्तानामादिवर्णोप्यगमदेषां क्षणादपि ।। ६/१२३ ४-स्थानभ्रं शो महदुःखम् । १५/४७ अलंकार योजना-- व्याकरण ज्ञान और शाब्दी क्रीड़ा-- यह कहना अत्युक्ति न होगा कि स्थूलभद्र गुणस्थूलभद्र गुणमाला में पाण्डित्य-प्रदर्शन के माला काव्य की अलंकार योजना अप्रस्तुत विधान लिये कोई स्थान नहीं है । यह कवि को अभीष्ट भी की नींव पर अवस्थित है। सूर चन्द्र के अप्रस्तुतों के नहीं । किन्तु विचित्र बात है कि विरह वर्णन जैसे भण्डार का प्रोर-छोर नहीं । उसकी उर्वर कल्पनाएँ, कोमल प्रसंग में उसे व्याकरण एवं शाब्दी क्रीड़ा कुशल कलाकार (बनकर) की तरह निरन्तर द्वारा अपना रचना कौशल प्रदर्शित करने की धुन अप्रस्तुतों का जाल बुनती जाती है। उसके अधिसवार हुई है। कांश अप्रस्तुत लोक व्यवहार, प्रकृति, परम्परा सामुद्रलावण्य अण प्रत्यय के बिना समुद्र आदि जीवन के विविध पक्षों से गृहीत हैं । कुछ लवण बन जाता है । कोश्या के मानसिक उल्लास कवि के अनुभव तथा पर्यवेक्षण शक्ति से प्रसूत हुए तथा वेदना की व्यञ्जना प्रण के सद्भाव एवं हैं । अप्रस्तुतों का यह निपुरण विधान कवि कल्पना प्रभाव के आधार पर की गई है। प्रियतम के संयोग को घोषित करता है तथा भावाभिव्यक्ति को सघन में उसके लिये सामुदलावण्य दो स्वतन्त्र पद थे। बनाता है। सूरचन्द्र के अप्रस्तुत उपमा, अतिशयोक्ति, अर्थात् उसका शरीर अतिशय लावण्य से परिपूर्ण रूपक आदि के रूप में प्रकट हुए हैं, किन्तु उन्होंने था। उसके वियोग में अण प्रत्यय के बिना वह अधिकतर उत्प्रेक्षा का परिधान धारण किया है । एक पद बन गया है। उसके लिये अब सब कुछ उपर्युक्त विविध प्रसंगों में सूरचन्द्र की उत्प्रेक्षाओं क्षार रूप हो गया है। के सौन्दर्य का यथेष्ट परिचय मिलता है। सति सामुद्रलावण्ये अभूतां वे भिदा त्वयि । ते प्रत्ययं बिनायातामेकं पद्य गते च मे ।। ६/११५ । स्थूलभद्र गुणमाला आलोच्य युग का एकमात्र निम्नोक्त पंक्तियों में केवल क्यच् प्रत्ययान्त ऐसा महाकाव्य है, जिसमें प्रारम्भ से अन्त तक, क्रियाएं प्रयुक्त की गई हैं। अनुष्टुप छन्द का ही प्रयोग हुआ है । सर्गान्त में महावीर जयन्ती स्मारिका 76 2-19. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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