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________________ भगवान् महावीर ने सम्यचारित की कसौटी महिंसा को रखा। अहिंसा के प्रभाव में चारित्र की कल्पना बाल में तेल निकालने अथवा अंधकार को प्रकाश कहने के समान है । अहिंसा का जैन तथा जैनेतर दर्शनों में क्या स्वरूप प्रभवा महत्व है यह प्रदर्शित है यहां अत्यन्त संक्षिप्त रूप में इन कुछ पंक्तियों में। प्र० सम्पादक भगवान् महावीर की अहिंसा का असली रूप श्री व्योहार राजेन्द्रसिंह जबलपुर। भगवान् बुद्ध और महावीर दोनों ही बढ़कर नहीं हैं । अर्थात् अहिंसा की साधना से बढ़ महापुरुषों के सिद्धांतों में अद्भुत समता मिलती कर कोई दूसरी साधना नहीं है।' है। यहां हम दोनों के तुलनात्मक विचारों को उद्धृत करने का प्रयास नहीं करेंगे । केवल भगवान् अहिंसा की भावना तभी दृढ़ हो सकती है जब महावीर के सिद्धांतों की चर्चा करेंगे। सभी लोग हम प्रात्मा को शरीर से पृथक् समझे । भोग-लिप्सा जानते हैं कि इनके सिद्धांतों में अहिंसा सर्वोपरि है। से हिंसा उत्पन्न होती है । इसलिये उन्होंने कहाइसके संबंध में भगवान् महावीर का सीधा-साधा "आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोग-लिप्सा तर्क यह है कि सब प्राणियों को अपना जीवन को धूल डालो।" प्यारा है । सुख सबको अच्छा लगता है और दुःख बुरा । मृत्यु सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय है। कुछ लोगों ने उन पर यह आक्षेप लगाया कि सब प्राणी जीना चाहते हैं। कुछ भी हो सबको उन्हा उन्होंने शरीर की नितांत उपेक्षा की है। उनका जीवन प्रिय है अत: किसी प्राणी की हिंसा नहीं। असली अर्थ कुछ दूसरा ही है जो कि नीचे लिखे करना चाहिये। वाक्य से प्रगट होता है : "अपने को कुश करो । तन-मन को हल्का करो। गीता ने इसी को आत्मौपम्य बुद्धि कहा है- , हार अपने को जीर्ण करो। भोग वृत्ति को जर्जर जिसे महावीर स्वामी ने इतने सरल शब्दों में समझा दिया है । कभी-कभी उन्होंने हिंसा को प्रारम्भ भी कहा है । जैसे-जो (आरम्भी हिंसा) से उपरत है वास्तव में अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलावही प्रज्ञावान् बुद्ध है । इस वाक्य में उनका भगवान् धार है । स्वरूप की दृष्टि से सब चेतन एक समान बुद्ध के प्रति आदर भी प्रगट होता है। कभी-कभी हैं। भगवान् महावीर के इन वाक्यों पर विचार उन्होंने हिंसा को शस्त्र और अहिंसा को अशस्त्र भी कीजिये। कहा है जैसे : __ "जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है । जिसे ( 'शस्त्र एक से एक बढ़कर हैं । परन्तु प्रशस्त्र से तू शासित करना चाहता है वह तू ही है। जिसे तू महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-175 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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