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________________ चरमोत्कर्ष है अतः मुमुक्षु प्राणियों के लिये परमात्मा साध्य है और अन्तरात्मा बनने के लिये साधन है। कर्म बन्धन से बद्ध एक गति से दूसरी गति में जन्म और मरण करने वाले जीव संसारी जीव कहलाते हैं ।17 और जो कर्म बन्धनों से मुक्त हो संसार से तिर चुके हैं वे मुक्त कहलाते हैं । मुक्ति अथवा मोक्ष शब्द का अर्थ छुटकारा है। जीव का समस्त कर्म बन्धनों से छुटकारा पा लेना ही मोक्ष प्राप्त होना है ।18 संसारी एवं मुक्त इन दो स्तरों के अलावा यदि विस्तृत दृष्टिकोण से देखें तो जीव के अनेक स्तर हैं । मुक्तावस्था में तो जीव अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होता है, अतः वहाँ किसी भी प्रकार का स्तर अथवा भेद नहीं है, किन्तु सांसारिक जीवों में अनेक भेद हैं, वह भेद एवं भिन्नता (जो सांसारिक जीवों में दृष्टिगोचर होती है) औपाधिक है। कर्मों के प्रावरण की तारतम्यता के कारण ही जीवों में पारस्परिक भेद दृष्टिगत होते हैं। सांसारिक जीवों के भेद निम्न प्रकार हैं (2) गति की अपेक्षा जीव के चार भेद हैं--- (अ) मनुष्य गति में उत्पन्न होने वाले जीव (ब) देवगति में उत्पन्न होने वाले जीव (स) तिर्यञ्चगति (पशु आदि) में उत्पन्न होने वाले जीव और (द) नरक गति में उत्पन्न होने वाले जीव । इन्द्रिय अपेक्षा से जीव के पांच भेद हैं 1) एकेन्द्रिय-जिनके केवल स्पर्शनइन्द्रिय ही होती है इसके भी पांच भेद हैं (1) विकास दशा की दृष्टि से तीन भेद हैं(अ) बहिरात्मा जो देह व जीव के पृथक्त्व को महीं समझता अर्थात् जो मिथ्यादृष्टि है वह बहिरात्मा है। अन्तरात्माजो देह व जीव के भेद को समझते हैं अर्थान् जो सम्यग्दृष्टि हैं वे अन्तरात्मा (अ) पृथ्वीकायिक (ब) जलकायिक (स) तेजसकायिक (द) वायुकायिक (ई) वनस्पतिकायिक (2) दो-इन्द्रिय-जिनके स्पर्शन व रसना (जिह्वा) इन्द्रिय होती है, जैसे शंख, सीपी प्रादि । (3) तीन-इन्द्रिय-जिनके स्पर्शन रसना एवं घ्राण इन्द्रिय होती है जैसे, जू, चींटी खटमल आदि । (4) चार इन्द्रिय-जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण एवं चक्षु इन्द्रिय होती है जैसे मक्खी, भंवरा आदि। . हैं।30 (स) परमात्मा जो सर्वद्रष्टा है, केवलज्ञानी है वह परमात्मा है। यह आत्मा का (17) (अ) पंचास्तिकाय संग्रह, गा० 109 (ब) तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य हरम्परा, पृ० 345 (18) जैन धर्म पृ० 226 (19) महंत प्रवचन पृ० 13 (20) पहत् प्रवचन पृ० 14 (21) अर्हत् प्रवचन पृ. 15 1-166 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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