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अपरिग्रही होने के लिए दूसरी बात प्रामाणिक होने की है । उसमें वस्तुओंों की मर्यादा नहीं, अपनी मर्यादा करना जरूरी है । सत्य पालन का अर्थ यह नहीं है कि व्यापारिक गोपनीयता को उजागर करते फिरें । इसका श्राशय केवल इतना है कि आपने जिस प्रतिशत मुनाफे पर व्यापार करना निश्चित किया है, उसमें खोट न हो। जिस वस्तु की कीमत ले रहे हैं, वह मिलावटी न हो । और अस्तेय का अर्थ है कि आपकी जो व्यापारिक सीमा है उसके बाहर की वस्तु का ग्रापमे अनावश्यक संग्रह नहीं किया है । इन अतिचारों से बचते हुए यदि जैन गृहस्थ व्यापार करता है तो वह देश के व्यापार को प्रामाणिक बनायेगा । आवश्यकता और सामर्थ्य के अनुरूप समृद्ध भी । तब उसकी दुकान और मन्दिर में कोई फरक नहीं होगा । व्यापार और धर्म एक दूसरे के पूरक होंगे ।
प्रश्न रह जाता है समाज में व्याप्त शोषण व जमाखोरी की प्रवृत्ति को बदलने का । महावीर का चिन्तन इस दिशा में बड़ा संतोषी है। पूरे समाज को बदलने का दिवास्वप्न उसमें कभी नहीं देखा गया । किन्तु व्यक्ति के बदलने का पूरा प्रयत्न किया है। इसलिए महावीर का समाज प्रशुभ से शुभ की ओर, हेय से उपादेय की ओर किसी समारोह की प्रतीक्षा नहीं करता । भीड़ का अनुगमन नहीं चाहता । और न ही किसी राजनेता
जाने में
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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या बड़े व्यक्तित्व के द्वारा उसे उद्घाटन की आवश्यकता होती है । क्योंकि ये सभी मूर्च्छा के कार्य हैं । ममत्व और आकांक्षा के । इसलिए महावीर की दृष्टि से तो कोई भी व्यक्ति, किसी भी स्थिति में बदलाहट के लिए आगे आ सकता है । उसके परिवर्तन की रश्मियां समाज को प्रभावित करेंगी
ही ।
आज के भौतिकवादी युग में हमारी स्पर्धा भी जड़ हो गयी है | ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में श्रन्य देशों के साथ बराबरी के लिए प्रयत्न करना ठीक हो सकता है किन्तु भौतिकता एवं इन देशों के तथाकथित जीवन-मूल्यों के साथ भारतीय मनीषा को खड़ा करना अपनी परम्परा को ठीक से न समझ पाना है | अध्यात्म के जिन मूल्यों की थाती हमें मिली है, उसका शतांश भी अन्य देशों के पास नहीं है । फिर हम अपने को गरीब व हीन क्यों समझ रहे हैं ? रिक्त तो हम उस दिन होंगे जब भौतिक समृद्धि के होते हुए भी हमें अध्यात्म की खोज में भटकना पड़ेगा । कम से कम भगवान् महावीर की निर्वारण शताब्दी में तो यह ऋणात्मकता की स्थिति न आने दें। महावीर जो हमें सौंप गये हैं उसमें अपनी सामर्थ्य से कुछ जोड़ें ही । भौतिकता का हमने बहुत व्यापार किया अब कुछ नैतिक मूल्यों की बढ़ोतरी का ही व्यापार सही ।★
उत्तम आकिञ्चन्य
भाले न समता सुख कभी नर, बिना मुति मुद्रा धरें । धनि नगन परवत नगन ठाड़े, सुरश्रसुर पायनि परे ।। घर माह तृष्णा जो घटावे, रुचि नहीं बहु धन बुरा भला कहिये, लीन पर
संसार सौं । उपकार सौं ।
-- महाकवि द्यानतराय
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