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________________ को भी वस्तुओं की तरह संग्रह कर लिया है। में यदि वह परिग्रह न करे तो करे क्या ? समाज वस्तुओं को उसने अपने महल में संजोया है। धर्म में तो उसे रहना है। को अपने बनाये हुए मंदिर में रख दिया है। इस तरह इस लोक और परलोक दोनों जगह परिग्रही वर्तमान सामाजिक मूल्यों से भी अपरिग्रह-वृत्ति अपनी सुरक्षा का इंतजाम करके चलता है। प्रभावित हुई है। चक्रवतियों व सामन्तों का वैभव साहित्य में पढ़ते-पढ़ते हमारी प्रांखें उससे चौंधिया गयीं हैं। समाज में हमने उसे प्रतिष्ठा देनी प्रारम्भ आधुनिक युग में परिग्रही होने के कुछ और पार कर दी है जो वैभवसम्पन्न है। नैतिक-मूल्यों के कारण विकसित हो गये हैं। भय के वैज्ञानिक । धनी हमारी उंगलियों पर नहीं चढ़ते । युवापीढ़ी उपकरण बड़े हैं। अतः उनसे सुरक्षित होने के । __ के कलाकारों, चरित्रवान् युवकों व चिन्तनशील साधन भी खोजे गये हैं। वर्तमान से असंतोष एवं व्यक्तियों की हमें पहिचान नहीं रही। बनाभविष्य के प्रति निराशा ने व्यक्ति को अधिक परि __वटीपन की इस भीड़ में महावीर का चिन्तन ग्रही बनाया है । पहले स्वर्ग के सुख के प्रति आस्था कहीं खो गया है। जीवन-मूल्य को हमने इतना होने से व्यक्ति इस लोक में अधिक सुखी होने का अधिक पकड़ लिया है कि जीवन-मूल्य हमारे हाथ से प्रयत्न नहीं करता था। अब वह भ्रम टूट गया । छिटक गया है। और जब जीव का, आत्मा का, अतः साधन सम्पन्न व्यक्ति यहीं स्वर्ग बनाना चाहता । निर्मलता का मूल्य न रह गया तो जड़ता ही पनहै । स्वर्ग के सुखों के लिए रत्न, अप्सरायें आदि पेगी । कीचड़ ही कीचड़ नजर आयेगा। चाहिए सो व्यक्ति जिस किसी तरह से उन्हें जुटा रहा है। और उस अपव्यय को रोक रहा है जो भगवान् महावीर का चिन्तन यहीं से प्रारम्भ वह धम पर खर्च करता था । पहले व्यापार और होता है। परिग्रह के इन परिणामों से वे परिचित धर्म साथ-साथ थे अब धर्म में भी व्यापार प्रारम्भ थे। वे जानते थे कि व्यक्ति जब तक स्वयं का हो गया है। स्वामी नहीं होगा वस्तुएं उस पर राज्य करेंगी। उसे इतना मूच्छित कर देंगी कि वह स्वयं को न परिग्रह के प्रति इस श्रासक्ति के विकसित होने पहिचान सके । जिस शरीर को उसने धरोहर के में आज की युवा पीढ़ी भी एक कारण है । पहले रूप में स्वीकार किया है, उस शरीर की वह स्वयं पहले व्यक्ति अपने परिवार व सम्पत्ति के प्रति धरोहर हो जाय इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी? इसलिए ममत्त्व को कम कर देता था कि उसे अतः महावीर ने प्रात्मा और शरीर के भेद विज्ञान विश्वास होता था कि उसके परिवार व व्यापार से ही अपनी बात प्रारम्भ की है। बिना इसके को उसकी सन्तान सम्हाल लेगी। वृद्धावस्था में अहिंसा, अपरिग्रह आदि कुछ फलित नहीं होता। वह निःसंग होकर धर्म-ध्यान कर सकेगा । कारण अतः अपरिग्रह की साधना के लिए मूर्छा को कुछ भी हों किन्तु परिवार के मुखिया को आज तोड़ना आवश्यक है। की युवापीढ़ी में यह विश्वास नहीं रहा । वह अपने लिए तो परिग्रह करता ही है, पुत्र में ममत्व होने आधुनिक सन्दर्भ में अपरिग्रही होना कठिन से उसके लिए भी जोड़कर रख जाना चाहता नहीं है । समझ का फेर है। साधन-सम्पन्न व्यक्ति है। न केवल पुत्र अपितु दामादों का पोषण भी आज हर तरह से पूर्ण होना चाहता है निर्भय पुत्री के पिता के उपर आ गया है। ऐसी स्थिति होना चाहता है। और चाहता है कि उसका महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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