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व्यक्त न कर मन में ही उसके प्रति क्रोध को इस भाव से दबा लेते हैं कि अभी मौका ठीक नहीं है प्रत्याक्रमण करने से मुझे हानि हो सकती है, शत्रु प्रबल है। मौका लगने पर बदला लूंगा । तब वह क्रोध बैर का रूप धारण कर लेता है और वर्षो दबा रहता है तथा समय आने पर प्रगट हो जाता है । ऊपर से देखने पर कोध की अपेक्षा यह विवेक का कम विरोधी नजर आता है पर यह है क्रोध से भी अधिक खतरनाक, क्योंकि यह योजनाबद्ध विनाश करता है जबकि क्रोध विनाश की योजना नहीं बनाता । तत्काल जो जैसा सम्भव होता है कर गुजरता है । योजनाबद्ध विनाश सामान्य विनाश से अधिक खतरनाक, और भयानक होता है ।
यद्यपि जितनी तीव्रता और वेग क्रोध में देखने में आती है, उतनी बैर में नहीं तथापि क्रोध का काल बहुत कम है जबकि बैर पीढ़ियों दर पीढ़ी चलता रहता है ।
क्रोध और भी अनेक रूपों में पाया जाता है । झल्लाहट, चिड़चिड़ाहट, क्षोभ आदि भी क्रोध के ही रूप हैं । जब हमें किसी की कोई बात या काम पसन्द नहीं आता है और वह बात बार-बार हमारे सामने आती है तो हम भल्ला पड़ते हैं। बार- २ की झल्लाहट चिड़चिड़ाहट में बदल जाती है । झल्लाहट और चिड़चिड़ाहट असफल क्रोध के परिणाम हैं । ये एक प्रकार से क्रोध के हल्के-हल्के रूप हैं । क्षोभ भी क्रोध का ही अव्यक्त रूप है ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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ये सभी विकार क्रोध के ही छोटे बड़े रूप हैं । सभी मानसिक शान्ति को भंग करने वाले हैं, महानता की राह के रोड़े हैं। इनके रहते कोई भी व्यक्ति महान् नहीं बन सकता, पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता । यदि हमें महान बनना है, पूर्णता को प्राप्त करना है तो इन पर विजय प्राप्त करनी ही होगी । इन्हें जीतना ही होगा । पर कैसे ?
-"अज्ञान महापंडित टोडरमल के शब्दों मेंके कारण जब तक हमें पर पदार्थ इष्ट-अनिष्ट प्रतिभासित होते रहेंगे तब तक क्रोधादि की उन्नति होती ही रहेगी किन्तु जब तत्त्वाभ्यास के बल से पर पदार्थों में इष्ट- अनिष्ट बुद्धि समाप्त होगी तब स्वभावतः क्रोधादि की उत्पत्ति नहीं होगी ।" आशय यह है कि क्रोधादि की उत्पत्ति का मूल कारण हमारे सुख-दुःख का कारण दूसरों को मानना है, जब हम अपने सुख-दुःख का कारण अपने में खोजेंगे, उनका उत्तरदायित्व अपने में स्वीकारेंगे तो फिर हम क्रोध करेंगे किस पर ?
अपने अच्छे बुरे और सुख-दुःख का कर्ता दूसरों को मानना ही क्रोधादि की उत्पत्ति का मूल कारण है ।
इन विकारों से बचने का एक ही मार्ग हैअपने को जानिये अपने को पहचानिए और अपने में जम जाइये, रम जाइये अपने में ही समा जाइये ।
करके तो देखिए —— क्रोधादि की उत्पति भी न होगी और आप पूर्णता को भी प्राप्त होंगे ।
जे करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहीं जीयरा । प्रति क्रोध प्रगनि बुझाय प्रानी, साम्य जल ले सीयरा ॥ - महाकवि द्यानतराय
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