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________________ मधिकांश भक्तगण प्रायः नित्य ही पूजा करते हैं। कइयों के तो इस बात का नियम ही होता है किन्तु उनमें से ऐसे कितने हैं जो पूजा के वास्तविक रहस्य को समझते हैं। प्राज तो प्रायः यह एक आम बात हो गई है कि पूजा बड़े उच्च स्वर से लाउडस्पीकर लगा कर गाजे बाजे के साथ की जाती है और कहा जाता है कि बड़े ठाठ-बाट से पूजा हुई। लेकिन क्या पूजा इस प्रकार की जाती है ? क्या पूजा दूसरों को सुनाने के लिए की जाती है ? कई बार तो इस प्रकार की पूजा अन्यों को विशेष कर पढ़ने वाले छात्रों को बड़ी बाधाएं पहुंचाती हैं। पूजा तो मूर्ति की नहीं अपितु मूर्ति के पालम्बन से स्व की प्राप्ति के लिए की जाती है जिसकी प्राप्ति इस प्रकार कभी हो ही नहीं सकती। एक प्रकार से पूजा के इस उद्देश्य को हमने भुला ही दिया है। इसी तथ्य को विद्वान् चिन्तक ने अपनी इस लघु रचना में कितने सुबोध और कलापूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है जरा पढ़िये तो। प्र० सम्पादक खुली आँख से दृश्य दीखते, बन्द आँख से दिखता द्रष्टा। विद्यावारिधि डॉ० महेन्द्रसागर प्रचंडिया एम.ए., पी-एच. डी, डी. लिट्., साहित्यालंकार, अलीगढ़ राजस्थान के पुराने मन्दिर के दर्शन करने का के साथ-साथ हावोद्घाटन भी दर्शनीय था। मैं जिन मुझे अवसर मिला था। मंदिर जीर्ण था तथापि बिम्ब की अपेक्षा जन-कौतुक देखकर अजीब-सा अपने स्थापत्य-कौशल में वह वस्तुतः बेनजीर था। अनुभव कर उठा, और मुझे स्मरण है कि मैं तब भीतर अनेक वेदियाँ और एक-एक विशाल बेदी कहने सुनने के लोभ का संदरण नहीं कर सका पर अगणित जिन मूर्तियों का स्थापन देखते ही था । मैंने पुजारी से कहा था, "क्यों भाई, प्रारम्भ बनता । जितनी मूर्तियाँ थी उसके दशांश दर्शना- में आप पूजा मंदस्वर में कर रहे थे और मेरे पाने थियों की संख्या मंदिरजी में नहीं दिख रही थी के भाव को जानकर आप उसे सहसा दीर्घ स्वर में और जो थे भी वे मेरे भीतर प्रवेश करते समय गा उठे, इसका कारण क्या है ?" पुजारी मधुरबाहर निकल रहे थे । सुदूर भीतर एक वेदिका पर मधु मुसकराये और अबोलते बोल में खिसिपाने दीक्षित और दक्ष पुजारी पूजन-अर्चन कर रहे थे। का भाव व्यक्त कर गये ! मैंने पुनः विनम्र किन्तु सावधानीपूर्वक मैं उनके पीछे खड़ा हो गया और गम्भीर शैली में यथार्थ जानना चाहा और तब वे दर्शन लाभ ले रहा था। पुजारी की पूजा परा- बोले, अकेले में किसे सुनाऊँ पूजा के पद, आप प्रा पश्यन्ति से होती हुई मंद-मंद गति से बिखर कर गये अतः सस्वर पाठ करने लगा था। पुजारी का बैखरी का रूप धारण कर रही थी। अचानक मेरी कथन सच था। यह दयनीय यथार्थ केवल उन उपस्थिति प्रमाणित हो गई और मैंने देखा-सुना कि पुजारी जन का ही हो ऐसी बात नहीं, हममें से शतपुजारी की पूजा का स्वर दीर्घ हो उठा । भावोद्दोलन सहस्र पूजा-पाठियों की पूजा सम्बन्धी यही विडम्बना महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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