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________________ चाहिए। जैन धर्म के सम्पूर्ण उपदेश आगार धर्म भाव प्राणों का घात होना हिंसा है। प्रमाद से (श्रावक धर्म) के अभ्यास क्रम से लेकर अनगार प्राशय मोह-राग-द्वेष आदि विकारों से ही है । अतः धर्म की अन्तिम श्रेणी तक का साधना क्रम (मुनि- उक्त कथन में द्रव्य, भाव में दोनों प्रकार की हिंसा धर्म) उसी लक्ष्य की ओर ले जाने के लिए है। समाहित हो जाती है" (पृ. १६०)। पुनश्च, इस प्रकार जैनधर्म भौतिक भोगमय धारा के “यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है कि जब विपरीत आध्यात्मिक-त्यागमय धारा का प्रतिपादक मारने का भाव हिंसा है तो बचाने के भाव का नाम है। गृहस्थ जीवन में पूर्ण त्याग को अशक्य मानते अहिंसा होगा ? और शास्त्रों में उसे मारने के भाव हुए आगे बढ़ने की क्रमिक प्रतिमायें निश्चित की की अपेक्षा मंद कषाय एवं शुभ भाव रूप होने से गई हैं-परन्तु लक्ष्य तो पूर्ण त्याग का ही है। व्यवहार से अहिंसा कहा भी है ।........जैन दर्शन विविध विरोधी दृष्टिकोणों के संघर्ष से बचा जा का कहना है कि मारने का भाव तो हिंसा है सके इसके लिए भगवान महावीर ने अनेकान्तात्मक किन्तु बचाने का भाव भी एक दृष्टि से हिंसा ही वाणी एवं अहिंसात्मक आचरण पर जोर दिया है। भी गिन लिया है; क्योंकि वह भी राग भाव है। इस प्रकार जैन धर्म में सह-अस्तित्व, समन्वय-वृत्ति, यद्यपि बचाने का भाव मारने के भाव की अपेक्षा सहिष्णुता, व समता-भाव का प्रतिपादन भी मूल प्रशस्त है तथापि है तो राग ही । राग तो अाग है। रूप में निहित है । ये वे शाश्वत् सिद्धान्त हैं, जिनका प्राग चाहे नीम की हो या चन्दन की जलायेगी ही। अनुसरण कर विश्व में प्राणिमात्र शांतिपूर्वक । अहिंसा तो वीतराग-परिणति का नाम है,शुभाशुभ रह सकते हैं और संघर्ष से बच सकते हैं । राग का नाम नहीं । अन्त में तो अशुभ के साथ शुभ राग को भी छोड़ने से ही वीतरागत्व प्राप्त सिद्धांतों का व्यवहार :-जैनधर्म की व्यवहार होता है। पक्ष की व्याख्या के अनुसार जहां साधु को पूर्ण अहिंसक एवं अपरिग्रही होना चाहिए, वहीं श्रावकों यद्यपि मारने के भाव से पाप बंध होता है और (गृहस्थों) से इसकी सीमित और क्रमिक अपेक्षा बचाने के भाव से पुण्य का तथापि होता तो बंध की गई है। गृहस्थ को बिना प्रयोजन चींटी तक ही है; बंध का प्रभाव नहीं। इसे सरलता से यों का वध नहीं करना चाहिए-परन्तु देश, समाज, घर समझा जा सकता है। किसी प्रभाव की अन्तिम बार, मां-बहिन, धर्म और धर्मसाधन एवं न्यायपथ मंजिल पर पहुँचने के लिए सीढ़ियों की आवश्यकता की रक्षा के निमित्त तलवार उठाने में उसे संकोच है । पर मंजिल पर पहुँचने के बाद सीढ़ियों को भी नहीं करना चाहिए। छोड़ना ही पड़ता है। अगर सीढ़ियों से ही चिपका अहिंसा के सिद्धांत को बड़ी बारीकी से स्पष्ट रहे तो मंजिल पर नहीं पहुंच पायेगा । यही स्थिति किया गया है :-"वस्तुतः हिंसा-अहिंसा का संबंध लगभग पुण्य की है जो लक्ष्य प्राप्ति का साधन मात्र पर-जीवों के जीवन-मरण सुख-दुःख से न होकर है लक्ष्य नहीं। धर्म तो बंध का प्रभाव करने प्रात्मा में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष, मोह आदि वाला है, अतः बंध के कारण को एकान्ततः धर्म विकारों के परिणामों से है; पर के कारण प्रात्मा कैसे कहा जा सकता है ? में हिंसा उत्पन्न नहीं होती” (पृ. १८६) । "प्राचार्य उमा स्वामी ने 'प्रमत्त योगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा' आचार्य अमृतचंद्र ने पुरुषार्थसिद्ध युपाय के कहा है। प्रमाद के योग से व्यक्तियों के द्रव्य और श्लोक ४२ में कहा है : 1-115 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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