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________________ - मानव-जीवन समस्याओं का घर है। जब से वह इस धरती पर अपने प्रथम चरण . रखता है तब से ही उसे कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इनमें से कुछ समस्याएं तो सार्वत्रिक और सार्वकालिक होती हैं जैसे पेठ भरने की समस्या, रहने की समस्या प्रादि; और कुछ समस्याएं होती हैं सामयिक, क्षेत्रीय अथवा वैयक्तिक यथा-देश पर शन का प्राक्रमण, महामारी, रुग्णावस्था आदि । ये समस्याएं मानव को निरन्तर दु:खी और संतप्त किये रहती हैं। मानव को ही नहीं विश्व के प्रत्येक प्राणी को कोई न कोई समस्या संतप्त किये ही रहती है और वह उस संताप से छुटकारा पाना चाहता है। विश्व का कोई भी प्राणी दुःखी होना नहीं चाहता । संसार के प्रत्येक धर्माचार्म और दार्शनिक अथवा चिन्तक ने अपनी अपनी दृष्टि से इस समस्या का हल प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। जैन दार्शनिक इन समस्यामों का क्या उपाय बताते हैं अथवा हम हमारे व्यवहारिक जीवन में किस प्रकार इन समस्यामों से जूझ अपने जीवन को और राष्ट्र को सुखी और सम्पन्न बमा सकते हैं इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयत्न विद्वान् लेखक ने अपनी इस रचना में किया है। प्र० सम्पादक जैनधर्म की दृष्टि में हमारा जीवन-व्यवहार .श्री प्रकाशचन्द गोयल, जयपुर। मुक्ति मार्ग के सिद्धान्त : का जो ११ हैं) का प्रतिपादन किया है। अतः ___ मामव शाश्वत् सुख की प्राप्ति के लिये धर्म का प्रत्येक व्यक्ति का उन्हें जीवन में अपनाना संभव ही अवलंबन करता आया है। शाब्दिक व्युत्पत्ति के नहीं, वरन् प्रयोग-सिद्ध भी है । जहां साधु के जीवन अनुसार "धारणाद्धर्ममिति उच्यते" जो धारण में हिंसा, परिग्रहादि के पूर्ण त्याग का प्रतिपादन करता है अथवा जिसके द्वारा धारण किया जाता है, वहीं श्रावक व गृहस्थ के जीवन में उनका योग्यहै, वह धर्म है। तानुसार सीमित ग्रहण का कथन भी है-यद्यपि अंतिम लक्ष्य समस्त बाह्य परिग्रहों तथा संबंधों का जीवन को पवित्र, चरित्रवान् एवं सुखी बनाने त्याग एवं अंतरंग रागद्वेषादि को छिन्न करके के लिए तीर्थंकर भगवान् महावीर ने अहिंसा, सत्य, स्वात्मानुभूति-लीन दिगंबर साधु होना ही माना अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पांच महान् गया है, जिसकी अंतिम सीढ़ी है-मोक्ष। सिद्धान्त लोक के सामने रखे। व्यावहारिक जीवन में इनके सफल प्रयोग के लिए उन्होंने इन्हें साधु (सम्यक् ) दर्शन-ज्ञान-चारित्र, श्रद्धा, सुख आदि और गृहस्थ जनों को लक्ष्य में रख कर महाव्रत और अनंत गुणों का पिंड जो यह आत्मा है-वे गुण ही अणुव्रत के रूप में प्रस्तुत किया । यद्यपि उन्होंने उसको धारण करते हैं, अथवा तो यह आत्मा ही हिंसादि पापों के रंच-मात्र सद्भाव को भी श्रेय- उनको धारण करता है, अतः वे ही प्रात्म-धर्म हैं । स्कर नहीं माना है तथापि उनको जीवन में उतारने मोह-राग-द्वेष भावों का निमित्त पाकर, प्रारमके लिए अनेक स्तरों (कक्षाओं, श्रेणियों, प्रतिमाओं प्रदेशों के साथ कर्माणु दूध-पानी की तरह एकमेक महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International 1-113 www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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