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________________ हाल ही में भगवान् महावीर २५०० वां निर्वाण वर्ष बड़ी धूमधाम से मनाया जा चुका है। प्रदर्शन, भाषणों, निर्माणकार्यों की वह चकाचौंध अब समाप्तप्राय है । अब समय आगया है कि हम इस वर्ष की उपलब्धियों का शांतचित्त होकर लेखा-जोखा लें । महावीर ने प्रदर्शन को नहीं साधना को महत्व दिया था । साधना धुत्रांधार भाषणों से नहीं अहिंसा का अपने जीवन में प्राचरण करने से होती है । सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं तथा अपरिग्रह का श्राचरण तब हीं संभव और यथार्थ है जब कि उनके साथ अहिंसा का सम्मिश्रण हो । आचरण की सफलता जीवन में अहिंसा पालन में है। तब ही हम आत्मोन्मुख हो कर्मबंधन काटने में साफल्य-लाभ कर सकते हैं । कहना न होगा निर्वाण वर्ष ने हमें इस प्रोर शायद ही बढ़ाया हो । लेखिका ने कहा है कि अब भी हम संभलें और आत्म-प्रवंचना से बाज आ ग्रात्मसमर्पित होने का प्रयास करें। तब ही हम सफलता की ओर अग्रसर हो सकते हैं । वर्तमान में लोक-जीवन अत्यन्त प्रस्त-व्यस्त हो गया है। लालसा ने प्रशान्ति की ज्वाला विकराल करदी है । पग पग पर व्यक्ति पीड़ा फैलता है; परन्तु पकड़ता उसी ग्राग को है, जो उसे निरंतर जला रही है। व्यक्ति के हृदय का परिमार्जन अनिवार्य है। उसकी दिशा, उसका पथपरिवर्तन आवश्यक है । Jain Education International समस्याओं के चौराहे और महावीर का अपरिग्रहवाद रूपवती "किरण", किरण ज्योति, ६६२ राइट टाउन जबलपुर -२ समाज सिंहावलोकन करे महावीर निर्वाणोत्सव वर्ष भी समाप्त हो गया। दिन-रात पंख लगा उड़ गये। पर हम उनकी गणना में व्यस्त "स्व" की ओर ध्यान न दे सके । क्या यही अर्थ था वर्ष मनाने का ? क्या विविध कार्यक्रमों का आयोजन, प्रदर्शन करने मात्र से ही कर्तव्य की इति हो गई ? वैयक्तिक या सामाजिक कौन से संशोधन हुए ? समाज एक पूर्ण महावीर जयन्ती स्मारिका 76 प्र० सम्पादक शरीर है तो व्यक्ति उसका श्रंग है । दोनों परस्पर आधारित हैं । अतः व्यक्ति स्वयं को इकाई मान अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करे तो उन्नत समाज की संरचना हो सकती है। हमें इस महान् वर्ष का मूल्यांकन करना चाहिये। किन्तु जो अपने चैतन्य आत्मा का ही महत्व नहीं आँक सका, वह इस जड़ वर्ष का महत्व कैसे आँक सकेगा ? उपलब्धियों का लेखा-जोखा श्रावश्यक है । प्रदर्शन नहीं, साधना भगवान् महावीर ने प्रदर्शन से बहुत दूर हटकर साधना की थी । उनके इस जीवन का ही नहीं; पूर्व जन्मों का भी प्राकलन किया जाय तो साघना के अतिरिक्त दूसरी बात खोजने से भी नहीं मिलती । साधना आत्मा की हो एवं श्रात्मा के लिए आत्मा करे, तो ही सफलता मिल सकती है । For Private & Personal Use Only 1-71 www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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