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श्रमण विद्या
और मनुष्य में गुणों का उत्तरोत्तर उत्क्रमण होता है। इस क्रम से व्यक्ति असीमता की ओर बढ़ता जाता है। महाभारत में भी अहिंसा की विशालता को बताते हुए कहा गया है कि जैसे हाथी के पैर में सभी पैर समा जाते हैं, वैसे अहिंसा में सभी धर्म और अर्थ अन्तर्भुक्त रहते हैं। अहिंसा का लक्षण करते हुए योगभाष्यकार कहते हैं कि सभी प्राणियों के प्रति सब समय में और सब प्रकार की मैत्री ही अहिंसा है। ("सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः" यो० भा० २।३०)। जितने यमनियमादि हैं, उनका मूल कारण अहिंसा ही है, अहिंसा के बिना इनका पालन व्यर्थ है, अहिंसा की सिद्धि के लिए यमनियमादि का अनुष्ठान किया जाता है, और अहिंसा को ही विशुद्ध करने के लिए इनका पालन किया जाता है "तदवदातरूपकरणायैवोदीयन्ते" (२।३०) । अहिंसक व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत कोई प्रयोजन नहीं है, एकमात्र लोकानुग्रह ही उसका महान प्रयोजन है। “आत्मानुग्रहाभावेऽपि भूतानुग्रहः प्रयोजनम् ।" (यो० सू० भा० १।२५) । अहिंसा : तत्त्वदर्शन
प्राचीन भारत में जहाँ तक अहिंसा का विकास हुआ था और सामाजिक तथा धार्मिक साधना में उसकी प्रतिष्ठा हई थी, उसके पीछे कौन सी प्रेरक दार्शनिक दृष्टि थी, उसका विवेचन भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उससे भी विकास की दिशा तथा उसकी सीमा ज्ञात होती है। उसी के आधार पर पुनः विकास की अग्रिम संभावनाओं की भी समीक्षा की जा सकती है। जैन और वैदिक आत्मवादी हैं, अतः दोनों ही आत्मौपम्य के आधार पर ही अहिंसा और समत्वदृष्टि की स्थापना करते हैं। जैनों में ईश्वर का हस्तक्षेप न होने से तथा आत्मा का स्तर-भेद होने से एवं उसमें गुणोत्कर्ष का सिद्धान्त स्वीकार कर लेने से कर्म-सिद्धान्त के विकास के लिए कुछ ताकिक स्वतन्त्रता मिल जाती है। कर्म के इस स्वतन्त्र क्षेत्र में और ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में अहिंसा के विकास के लिए पर्याप्त अवसर हैं। वैदिकों के आत्मवाद में सबसे अधिक उदार उपनिषदें और गीता समझी जाती हैं। किन्तु उसका सारा जोर इस पर है कि आत्मा अच्छेद्य, अभेद्य है, वह किसी भी विधि-निषेध से प्रभावित नहीं है। मन को अनासक्ति की भूमि पर रखकर शास्त्रानुमोदित हिंसा अथवा अहिंसा कर लेनी चाहिए। कौषीतकी उपनिषद् के मत में आत्मविद् का माप उसके कर्म से नहीं किया जा सकता । माता-पिता के वध से, चोरी या भ्रूणहत्या से भी उसे पाप नहीं लगता। वास्तव में कर्म ऐसे व्यक्ति का एक रोम भी टेढ़ा नहीं कर सकता-"तस्य मे तत्र न लोम च नामीयते. . . .न मातृवधेन न पितृवधेन न स्तेयेन न भ्रूणहत्यया नास्य पापं" कौषीतकी ३।१)। ऐसी आत्मवादी धारा के साथ सर्वकर्ता एवं सर्वज्ञ ईश्वर भी जुट संकाय पत्रिका-१
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