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________________ जैन परम्परा में श्रम ग और उसकी आचार संहिता २८५ है हाथ से नोचकर केश निकालना । लोक प्रचलित अर्थ में इसे ही केशलुञ्चन कहते हैं । वस्तुतः लोच शब्द लुंच धातु से बनकर अपनयन अर्थात् निकालना या दूर करना अर्थ में प्रयुक्त होता है। केशलोच अपने आप में कष्ट-सहिष्णुता की उच्च कसौटी और श्रमणों के पूर्ण संयमी जीवन का प्रतीक है । चूँकि केशों का बढ़ना स्वाभाविक है किन्तु नाई या उस्तरे, कैची आदि के बिना हाथों से ही उन्हें उखाड़कर निकालना श्रमण के स्ववीर्य, श्रामण्य तथा पूर्ण अपरिग्रही होने का प्रतीक है। इससे अपने शरीर के प्रति ममत्व का निराकरण तथा सर्वोत्कृष्ट तप का आचरण होता है । दीनता, याचना, परिग्रह और अपमान आदि दोषों के प्रसंगों से भी स्वतः बचा जा सकता है।' सभी तीर्थंकरों ने प्रव्रज्या ग्रहण करते समय अपने हाथों से पंचमुष्ठि लोच किया था। ___ कल्पसूत्र चूणि में कहा है-केश बढ़ने से जीवों की हिंसा होती है क्योंकि केश भींगने से जूं उत्पन्न होते हैं। सिर खुजलाने पर उनकी हिंसा और सिर में नखक्षत हो जाता है । क्षुरे (उस्तरे) या कैंची से बालों को काटने से आज्ञाभंग दोष के साथ साथ संयम और चारित्र की विराधना होती है । नाई अपने उस्तरे और कैची को सचित्त जल से साफ करता है अतः पश्चात्कर्मदोष होता है। जैन शासन की अवहेलना भी होती है। इन सब दृष्टियों से श्रमणों को केशलुचन का विधान किया गया है। मूलाचार के अनुसार दिन में प्रतिक्रमण और उपवास पूर्वक दो, तोन और चार मास में क्रमशः उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य रूप से केशलोच करना चाहिए। अर्थात् दो महीने के पूर्ण होने या अपूर्ण रहने पर केशलोच करना उत्कृष्ट लोच कहलाता है। तीन महीनों के पूर्ण होने या अपूर्ण रहने पर मध्यम और प्रत्येक चार महीनों के पूर्ण होने या अपूर्ण रहने पर केशलोच करना जघन्य लोच है। इस प्रकार श्रमण परम्परा में केशलोच की मात्र परम्परा हो नहीं अपितु श्रमण जीवन का आवश्यक मूलगुण है। क्योंकि संसार-विरक्ति के प्रमुख कारणों १. मूलाचार वृत्ति १।२९. २. कल्पसूत्र चूणि २८४, एवं कल्पसूत्र सुबोधिका टीका प. १९०-१९१. ३. वियतियचउक्कमासे लोचो उक्कस्समज्झिमजहण्णो । सपडिक्कमणे दिवसे उववासेणेव कायत्रो । मूलाचार १।२९. . ४. मूलाचार वृत्ति १।२९. संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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