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श्रमणविद्या करना आवश्यक है तब इससे अच्छा तो यही है कि वह पापकर्म ही न किया जाय ।' वैसे छोटे अपराध के समय यदि गुरु समीप न हों तब वैसी स्थिति में- मैं फिर ऐसा कभी नहीं करूंगा', 'मेरा पाप मिथ्या हो',-इस प्रकार प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए।२ जिस प्रकार मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण करते हैं उसी तरह असंयम क्रोधादि कषायों एवं अशुभ योगों का प्रतिक्रमण करना चाहिए। ५. प्रत्याख्यान - प्रतिक्रमण में जहाँ अतीतकालीन दोषों के प्रतिक्रमण की बात बताई है वहीं प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) में भविष्य काल के दोष-त्याग रूप संकल्प की बात कही गई है। भविष्य काल के प्रति मर्यादा के साथ अशुभयोग से निवृत्ति तथा शुभयोग में प्रवृत्ति का आख्यान (प्रतिज्ञा) करना प्रत्याख्यान है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है-समस्त वाचनिक विकल्पों का त्याग करके तथा अनागत शुभाशुभ का निवारण करके जो साधु आत्मा को ध्याता है, उसे प्रत्याख्यान होता है। इस तरह मन, वचन और काय शुद्धकर आगामी काल में होने वाले दोषों का वर्तमान में तथा आगामी काल के लिए त्याग करना प्रत्याख्यान है। मूलाचार के अनुसार-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन छह निक्षेपों के विषय में शुभ मन, वचन और काय के द्वारा अनागत तथा आगामी काल के लिए दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। . भेद
श्रमणाचार विषयक साहित्य में प्रत्याख्यान के विविध भेद-प्रभेदों का उल्लेख है किन्तु मुख्यतः निम्नलिखित दस भेद इस प्रकार हैं-१. अनागत-अर्थात् भविष्य काल में किये जाने वाले उपवास को पहले कर लेना जैसे-चतुर्दशी को किया जाने वाला उपवास त्रयोदशी को कर लेना। २. अतिक्रान्त-अतीत काल विषयक उपवास आदि करना, जैसे चतुर्दशी आदि को कारणवश उपवास न कर पाये तो उसे आगे प्रतिपदा आदि को करना। ३. कोटिसहित-अर्थात् संकल्प समन्वित शक्ति की अपेक्षा उपवासादि करना, जैसे-कल स्वाध्याय के बाद यदि
१. आवश्यक नियुक्ति भाग-१, गाथा ६८४. २. चारित्रसार, १४१।४. ३. मूलाचार ७१२०. ४. नियमसार, ९५, राजवार्तिक ६।२४।११.
णामादीणं छण्डं अजोगपरिवज्जणं तियरणेण । पच्चक्खाणं णेयं अणागयं चागमे काले ।। मूलाचार १.२७.
संकाय पत्रिका-१
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