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आ. जिनप्रभसूरि-विरचित
अंतरंग-रास
संपा० र. म. शाह __(ईसुनी १३मी शताब्दीना उत्तरार्द्धमा थई गयेला आगम-गच्छीय जैनाचार्य जिनप्रभसरिए रचेली उत्तरकालीन अपभ्रंशनी अनेक लघु रचनाओमाथी केटलीक आ पूर्वे 'संबोधि'ना विविध अंकामा प्रगट थई चूकी छे. - आ. जिनप्रभसुरिनी ३० जेटली रचनाओनो एक संग्रह पाटणना खेतरवसी जैन शान भंडारनी, १४मी शताब्दीमा लखायेली एक ताडपत्रीय प्रति (पाटणना ताडपत्रीय हस्तप्रतोना गा. मो. सी. मां प्रकाशित सूचिपत्रमा जेनो क्रम नं. १२ छे) मां मळी आवे छे. तेमां पृ. १९०-१९४ उपर (कृति-३३) 'अंतरंगरास' ए शोर्षकथी प्रस्तुत रचना लखायेली छे. एनी आगल-पाछळनो कृतिओ जिनप्रभसृरिनी छे, एथो आ कृति पण जिनप्रभसूरिनी होवानु व्यानबी भनुमान सूचिपत्रकारे कयुं छे. प्रस्तुत 'अंतरंगरास' एक उपदेशात्मक जैन रूपक काव्य छे.]
पणमिउ पढम-निणिंदू सेत्तज्जह मंडणु ।
भणउं जीव-संबोहू भव-दुक्खह खंडणु । स्यणि-विरामे एउ भाविज्जइ गेहि पलित्तइ किमिह सूइजइ । जाणउं जीवहं तिहुयण गेहू जाव अस्थि थेवो वि सिणेहू । कोवग्गिहिं पज्जलिउ निरंतर माण-पवणि पूरिउ मार्भितरु । उठिय मायाजालि विसाला पसरिय जालाभिधणमाला ॥१॥
राग-अलायकणेहिं, संछाइउ अंबरु ।
पसरिउ सव्वहि दोस बहु-धूमाडंबरु । कम्मपयडि-पंसिहि संछाइउ दीसह कत्थ वि नहु विज्जाईउ । विसय-तडत्तड-सई समुट्ठिय पंचिहिं काम-गुणेहि मणिट्ठिय । मोह-चरड-निव-धाडि पहुत्ती इंदिय-तककर लेवि तुरंती । अविरह-रक्खसि बहु विफुरिया गुरु मिच्छत्त-मेच्छ अणुसरिया ॥२॥
डज्जइ गुण-कर-रासी विउसाण सुवल्लहु ।
डजइ समिय-निहाणू भुवणत्तय दुल्लहु ।। डज्जइ स्वम-मुत्तावलि चंगी जा न अभग्गह लोगइ अंगी। डज्जइ विरइ-कयाणगु सुंदरु ज नवि पावइ कह वि पुरंदरु । गुरु-पमाय-मइराए सु धारउ सयल वि जवले उ पनिवारिउ । लूसइ मोहराउ मणि विहसिउ बहुविह-निय-परिवारिहिं तोसिउ ॥३॥
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