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दिया, ईश्वर ने अनुग्रह किया । उस अर्थ में ही ईश्वर फत्रकारयिता या फलंपादयिता है । इससे स्पष्ट होता है कि जीवन्मुक्त उपदेष्टा ही ईश्वर है ।
वात्स्यायन की व्याख्यासे यह बात और स्पष्ट हो जाती है । उनके अनुसार 'अधर्ममिथ्याज्ञानप्रमादद्दान्या धर्मज्ञानसमाधिसम्पदा च विशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः' | यहां 'हान्या' शब्द महत्त्वपूर्ण है । उससे सिद्ध होता है कि ईश्वर नित्यमुक्त नहीं है । 'सङ्कल्पानुविधायी चास्य धर्मः प्रत्यात्मवृत्तीन् धर्माधर्मसञ्चयान् पृथिव्यादीनि च भूतानि प्रवर्तयति । एवं च स्वकर्मकृतस्याभ्यागमस्यालोपेन निर्माणप्राकाम्यमीश्वरस्य स्वकृतकर्मफलं वेदितव्यम् ।' यहां 'निर्माप्राकाम्यम्' से 'जगन्निर्माणप्राकाम्यम्' समझने के वजाय 'निर्माणकायप्राकाम्यम्' समझना ज्यादा उचित है और 'प्रति' का अर्थ 'प्रत्येक' करने के बजाय 'आभिमुख्य' करना इस संदर्भ में ज्यादा औचित्य रखता है । अतः इस कंडिका का अर्थ होगा- 'संकल्प होते ही उसके अनुरूप उसका धर्म ( = पूर्वकृत खास प्रकार का कर्म ) आत्मगत पूर्वकृत धर्माधर्म के संचयों को विपाकोन्मुख करता है और पृथ्वी आदि भूतों को (निर्माणकाय बनाने में द्वयणुकादिक्रमसे) प्रवर्तित करता है । ( और इन निर्माणकायों की सहायता से वह अन्तिम जन्म में पूर्वकृत कर्मों के फलों को भोग लेता है ।) अपने किये हुए कर्मों के फलों का भोगे बिना लोप होता नहीं ऐसा नियम होने से निर्माणकाय के लिए उसके संकल्प का अव्याघात ( अर्थात् संकल्प से ही निर्माणकाय बनाने का उसका सामर्थ्य ) उसके अपने पूर्वकृत कर्मका ही फल है ऐसा मानना चाहिए ।' अतः वात्स्यायन के मत में मोक्षमार्ग का उपदेशक, सर्वज्ञ, क्लेशमुक्त, जीवन्मुक्त पुरुष ही ईश्वर है ऐसा स्पष्टरूप से फलित होता है ।
न्याय-वैशेषिक संप्रदाय में कई नये विचारों का प्रवेश करवा के उस सम्प्रदाय का स्वरूप ही बदल देने के लिए ख्यात प्रशस्तपादने ही जगत्कर्ता ईश्वर की कल्पना न्यायवैशेषिक सम्प्रदाय में दाखिल की है । ऐसा उन्होंने क्यों किया यह संशोधन का विषय है | पतंजलि के सूत्रों पर से यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जाता कि वह नित्यमुक्त ईश्वर को स्वीकार करता हो, बल्कि वह भो जीवन्मुक्त को ही ईश्वर ( = गुरु) समझता हो ऐसी संभावना विशेष है और भाष्यकार व्यासने ही नित्य मुक्त ईश्वर का ख्याल योगसंप्रदाय में दाखिल किया हो ऐसा प्रतीत होता है । इस प्रकार की संभावनाओं का संशोधन किया होता तो ग्रन्थ और भी रोचक बनता ।
फिर भी जिस स्पष्टता से विद्वान लेखक ने उन उन टीकाकारों के पक्ष को रखा है ग्रन्थ को अनिवार्य पठनीय बना देता है । बौद्धों ने ईश्वरवाद का जहां जहां खण्डन किया है उन सत्र स्थलों का इस ग्रन्थ में योग्य संग्रह और विवेचन हुआ है । उस तरह यह ग्रन्थ हिन्दी में लिखे गये भारताय दार्शनिक साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान लेगा ही उस में संदेह नहीं ।
नगीन जी. शाह
१. देखें : ' An Alternative Interpretation of Patañjali's three Sutras on jśvara,' Sambodhi, Vol.4 No. 1.
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