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*१८ जैन कर्म सिद्धान्त : बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया पर स्वयं भी अलग हो जाता है । जिस प्रकार एरण्ड बीज या अन्य रेचक औषधि मल के रहने तक रहती है और मल निकल जाने पर वह भी निकल जाती है वैसे ही पाप की समाप्ति पर पुण्य भी अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं । वे किसी भी नव कर्म संतति
को जन्म नहीं देते हैं। अतः वस्तुतः व्यक्ति को अशुभ कर्म से बचना है । जब वह अशुभ '(पाप) कर्म से ऊपर उठ जाता है उसका सुभ कर्म भी शुद्ध कर्म बन जाता है । द्वेष पर पूर्ण विजय पा जाने पर राग भी नहीं रहता है। अतः राग-द्वेष के अभाव में उससे जो कर्म निसृत होते हैं वे शुद्ध (इपिथिक) होते हैं ।
पुण्य (शुभ) कर्म के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि पुण्योपार्जन की उपरोक्त क्रियाएँ जब अनासक्त भाव से की जाती है तो वे शुभ बन्ध का कारण न होकर कर्मक्षय (संवर और निर्जरा) का कारण बन जाती है। इसी प्रकार संवर और निर्जरा के कारण संयम और तप जब आसक्तभाव फलाकाक्षा (निदान अर्थात् उनके प्रतिफल के रूप में किसी निश्चित फल को कामना करना) से युक्त होते हैं तो वे कर्म क्षय अथवा निर्वाण का कारण न होकर बन्धन का ही कारण बनते हैं । चाहे वह सुखद फल के रूप में क्यों नहीं हों । जैनाचार दर्शन में अनासक्त भाव या राग द्वेष से रहित होकर किया गया शुद्ध कार्य ही मोक्ष या निर्वाण का कारण माना गया है और आसक्ति से किया गया शुभ कार्य भी बन्धन का ही कारण समझा गया है । यहाँ पर गीता की अनासक्त कर्म योग की विचारणा जैन दर्शन के अत्यन्त समोप आ जाती है । जैन दर्शन का अन्तिम लक्ष्य आत्मा को अशुभ कर्म से शुभ कर्म की ओर और शुभ से शुद्धकर्म (वीतराग दशा) की प्राप्ति है । आत्मा का शुद्धोपयोग ही जैन नैतिकता का अन्तिम साध्य है । बन्धन से मुक्ति की ओर :
___यद्यपि यह सत्य है आत्मा के पूर्व कर्म संस्कारों के कारण बन्धन की प्रक्रिया अवि. राम गति से चली जा रही है । पूर्व कर्म संस्कार अपने विपाक के अवसर पर आत्मा को प्रभावित करते हैं और उसके परिणाम स्वरूप मानसिक एवं शारीरिक क्रिया-व्यापार होता है, उस क्रिया-व्यापार के कारण नवीन कर्मास्रव एवं बन्ध होता है । अतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस बन्धन से मुक्त किस प्रकार हुआ जावे । जैन दर्शन बन्धन से बचने के लिए जो उपाय बताता है, उन्हें संवर और निर्जरा कहते हैं । संवर का अर्थ :
तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार आस्रव-निरोध संवर है । दूसरे शब्दों में कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आत्मा में आनो रुक जाना संवर है । यही संवर मोक्ष का कारण तथा नैतिक साधना का प्रथम सोपान है । संवर शब्द सम उपसर्ग पूर्वक वृ धातु से बना है। वृ धातु का अर्थ है रोकना या निरोध करना। इस प्रकार संवर शब्द का अर्थ किया गया है आत्मा को प्रभावित करने वाले कर्मवर्गणा के पुदगलों को रोक देना । सामान्यरूपेण शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओ का यथाशक्य निरोध करना (रोकना) संवर कहा जाता है क्योंकि क्रियाएँ ही आस्रव का आधार है। जैन परम्परा में संवर को कर्म परमाणुओं के आस्रव को रोकने के अर्थ में और बौद्ध परम्परा में क्रिया के निरोध के अर्थ में स्वीकार किया गया है । क्योंकि बौद्ध परम्परा में कर्मवर्गणा (परमाणुओं) का भौतिक स्वरूप मान्य नहीं है,
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