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गुजरात में जैनधर्म और जैन कला
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जैन हो गया था, उचित नहीं है, क्योंकि एक अवसर पर उसने जैन मन्दिरों पर पताका फहराने की मनाही कर दी थी ।
कुमारपाल ( लग० ११४३ - ११७२ ई०) के गद्दी पर बैठने पर जैनधर्म अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुआ । वह जैनधर्म का सबसे प्रबल पोषक था । उसने गुजरात में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उसी की उदारता का परिणाम था कि गुजरात श्वेताम्बर जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र हो गया ।
अपने प्रारम्भिक जीवनकाल में कुमारपाल शैव था परन्तु कालान्तर में वह जैन हो गया । आचार्य हेमचन्द्र के उपदेश से वह इतना प्रभावित हुआ कि उसने 'परमात' विरुद धारण किया । ४७ जैनधर्म में उसकी आस्था अपनी पराकाष्ठा पर उस समय पहुँची प्रतीत होती है जब उसने जैनधर्म के कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के परिपालन करने की खुलेयाम उद्घोषणा की । हेमचन्द्रकृत द्वयाश्रयकाव्य में उल्लेख है कि उसने 'अमारि' की घोषणा की ।४८ 'अमारि' सम्बन्धी साहित्यिक उल्लेख का समर्थन कुमारपाल के सामन्तों के अभिलेखों से भी होता है । सन् १९५२ के किराडु शिलालेख के अनुसार महाराज आल्हणदेव ने यह आदेश जारी किया कि शिवरात्रि तथा प्रत्येक पक्ष के अष्टमी, एकादशी और चतुर्दशी के दिन पशुबध न किया जाय । कुमारपाल के शासनकाल के एक अन्य अभिलेख के अनुसार पूर्णपाक्षदेव ने यह आदेश जारी किया कि अमावस्या तथा अन्य शुभ दिनों पर पशुबध न किया जाय । ५० यद्यपि कुमारपाल के अपने अभिलेखों में 'अमारि' की कहीं भी चर्चा नहीं है तथापि यह आंशिक उद्घोषणा नहीं थी क्योंकि हेमचन्द्र ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि हिन्दू देवीदेवताओं को भी पशुबलि न की जाय । उत्तरकालीन प्रबन्धों से भी इस बात की पुष्टि होती है क्योंकि उनमें उल्लेख है कि दुर्गापूजा के अवसर पर पशुबलि न की जाय । ५२ आखेट पर भी निषेध लागू किया गया था । इतना ही नहीं, कुमारपाल ने पुत्रहीन व्यक्तियों की सम्पत्ति के अधिग्रहण की मनाही कर दी थी तथा सुरापान, जुआ खेलने और कपोत एवं कुक्कुट की लड़ाई में बाजी लगाने पर पाबन्दी लगा दी थी । 49
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उपर्युक्त घोषणाओं के अतिरिक्त कुमारपाल ने स्थान-स्थान पर जैन मन्दिरों का निर्माण कराकर भी जैनधर्म को पोषण प्रदान किया । हेमचन्द्र ने अपने द्वयाश्रयकाव्य में कुमारपाल द्वारा निर्मित केवल दो ही जैन मन्दिरों का उल्लेख किया है; इनमें एक अणहिलपाटक में और दूसरा देवपट्टन में अवस्थित था, दोनों ही मन्दिर पार्श्वनाथ के थे । परन्तु हेमचन्द्र ने अपने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में उल्लेख
परिसंवाद- ४
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