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________________ जैन कला का अवदान ३२. ज्ञातव्य है कि जैन धर्म के सभी अर्धमागधी आगम ग्रन्थ लगभग पाँचवीं शती ई० के मध्य या छठी शती ई० के प्रारम्भ में (४५४ या ५१४ ई०) देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में वलभी (गुजरात) वाचन में लिपिबद्ध किये गये । ३३. ६३ शलाकापुरुषों की सूची में २४ जिनों के अतिरिक्त १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव सम्मिलित है। ३४. २४ जिनों की सूची में ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपाव, चन्द्रप्रभ, सुविधि (पुष्पदंत), शीतल, श्रेयांश, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व एवं वर्धमान (महावीर) ये नाम हैं। द्रष्टव्य समवायांगसूत्र १५७, कल्पसूत्र २, १८४-२०३; प उमचरियं १.१-७, ५.१४५-४८ । ३५. अष्टप्रातिहार्यों की सूची में अशोक वृक्ष, देव पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, भामण्डल, देव दुन्दुभि एवं त्रिछत्र सम्मिलित हैं। अशोकवृक्षः . सुरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ प्रतिष्ठासारोवार १.७६; हरिवंशपुराण ३.३१-३८; रूपमण्डन ६.३३-३५ । (द्रष्टव्य जैन धर्म का मौलिक इतिहास-हस्तीमल, भाग १, जयपुर, १९७१, पृ० ३३), ३६. विस्तार के लिए द्रष्टव्य; चन्दा, आर० पी०, 'जैन रिमेन्स एट राजगिर', आकिअलॉ जिकल सर्वे ऑव इण्डिया, ऐनुअल रिपोर्ट, १९२५-२६, पृ० १२५-२६; तिवारी, मारुतिनन्दन प्रसाद, ‘एन अन्पब्लिश्ड जिन इमेज इन दि भारत कला भवन वाराणसी', विश्वेश्वरानन्द इन्डोलॉजिकल जर्नल, खं० १३, अं० १-२, मार्च-सितम्बर १९७५ हैं, ३७३-७५; शाह, यू० पी०, अकोटा ब्रोन्जेज, बम्बई, १९५९, पृ० २८-२९ । ३७. २४ जिनों के लांछनों को सूची इस प्रकार है-वृषभ, गज, अश्व, कपि, क्रौंच पक्षी, पद्म, स्वस्तिक (नन्द्यावर्त), शशि, मकर, श्रीवत्स (या स्वस्तिक), गण्डक (या खड्गी), महिष, शूकर, श्येन, वज्र, मृग, छाग (बकरा), नंद्यावर्त (या तगरकुसुम-मत्स्य), कलश, कूर्म, नीलोत्पल, शंख, सर्प एवं सिंह । ३८. एपिग्राफिया इण्डिका खं. २, कलकत्ता, १८९४ (पृ. २०२-२०३, २१० । ३९. द्रष्टव्य, शाह, यू. पी., स्टडीज इन जैन आर्ट, वाराणसी, १९५५, पृ. ९४-९५, दे, सुधीन, 'चौमुख ए सिम्बालिक जैन आर्ट', जैन जर्नल, खं. ६, अं. १, जुलाई १९७१, पृ. २७; श्रीवास्तव, बी. एन., 'सम इन्टरेस्टिग जैन स्कल्पचर्स इन दि स्टेट म्यूजियम, लखनऊ', संग्रहालय पुरातत्व पत्रिका, अं. ९, जून १९७२, पृ. ४५ । ४०. विस्तार के लिए द्रष्टव्य, तिवारी, मारुतिनन्दन प्रसाद, 'सर्वतोभद्रिका जिन मूर्तियाँ या जिन चौमुखी', सम्बोधि, खं. ८, अं. १-४, अप्रैल '७९-जनवरी '८०, पृ. १-७ । ४१. मथुरा से कुषाणकालीन एकमुखी और पंचमुखी शिवलिंगों के उदाहरण मिले हैं । पंचमुखी शिवलिंग में चार मुख चार दिशाओं में हैं और एक मुख सबसे ऊपर है। राजघाट परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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