________________
जैन कला का अवदान
के साथ अष्टप्रातिहार्यों एवं यक्ष-यक्षी युगल का निरूपण हुआ है। बाहुबली की मूर्तियों में श्रवणबेलगोला की ५७ फीट ऊँची मूर्ति (९८१-९८६ ई.) सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और भारतीय कला का एक अप्रतिम और गौरवशाली उदाहरण है। खुले आकाश के नीचे स्थित यह विशाल मूर्ति विश्व की धार्मिक मूर्तियों में विशालतम भी है। बाहुबली की अन्य विशिष्ट मूर्तियाँ एलोरा, कारकल (१३४२ ई.) एवं वेणूर (१६०४ ई.) में हैं।
__ जिनों एवं यक्ष-यक्षियों के बाद जैन देवकुल में विद्याओं को सर्वाधिक प्रतिष्ठा मिली। स्थानांगसूत्र, सूत्रकृतांग, नायाधम्मकहाओ और पउमचरियं जैसे प्रारंभिक, एवं हरिवंशपुराण, वसुदेवहिण्डी और त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित्र जैसे परवर्ती ग्रंथों (छठीं-बारहवीं शती ई.) में विद्याओं के अनेक उल्लेख हैं ।४५ जैन ग्रंथों में वर्णित अनेक विद्याओं में से १६ प्रमुख विद्याओं को लेकर लगभग नवीं शती ई. में १६ महाविद्याओं की सूची नियत हुई। लगभग नवीं से बारहवीं शती ई. के मध्य इन्हीं १६ विद्याओं के ग्रंथों में प्रतिमा लक्षण निर्धारित हुए और शिल्प में भी इनकी मूर्तियां बनीं।
१६ विद्याओं की प्रारंभिकतम सूचियां जयापहुड (९वीं शती ई.), संहितासार (९३९ ई.) एवं स्तुति चतुविशतिका (लगभग ९७३ ई.) में हैं। वप्पभट्टि सूरि की चतुर्विशतिका (७४३-८३८ ई.) में सर्वप्रथम १६ में से १५ विद्याओं की लाक्षणिक विशेषताएँ निरूपित हुई। सभी १६ विद्याओं की लाक्षणिक विशेषताओं का निर्धारण सर्वप्रथम शोभन मुनि की स्तुति चतुर्विशतिका में हुआ। विद्याओं की प्राचीनतम मूर्तियाँ ओसिया के महावीर मंदिर (लगभग ८वीं शती ई०) से मिली हैं। नवीं से तेरहवीं शती ई. के मध्य गुजरात और राजस्थान के श्वेतांबर जैन मंदिरों में विद्याओं की अनेक मूर्तियाँ उत्कीर्ण हुईं। १६ महाविद्याओं के सामूहिक चित्रण के भी प्रयास किये गये, जिसके चार उदाहरण क्रमशः कुंभारिया के शांतिनाथ मंदिर (११वीं शती ई.) और आबू के विमलवसही (दो उदाहरण : रंगमण्डप और देवकुलिका ४१, १२वीं शती ई.), एवं लूणवसही (रंगमण्डप १२३० ई.) से मिले हैं। दिगंबर स्थलों पर विद्याओं के चित्रण का एकमात्र संभावित उदाहरण खजुराहो के आदिनाथ मंदिर की भित्ति (११वीं शती ई.) पर है।
भारतीय कला के संदर्भ में जैन मूर्तिकला के उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यहाँ निम्नांकित विचार बिन्दुओं को रेखांकित करना उपयुक्त होगा:
भारतीय कला का विकास विभिन्न धार्मिक परम्पराओं के अनुसार हुआ है। इसलिए भारतीय कला के अनुशीलन के लिए भारतीय धार्मिक परम्पराओं तथा भारतीय संस्कृति के समष्टिगत स्वरूप का परिज्ञान आवश्यक है।
परिसंवाद-४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org