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जैन एवं बौद्धधर्म
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आज आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्नता में एकता की खोज की जाए और उसी एकता के सूत्र में बंधकर श्रमण संस्कृति के आदर्शों को जन-जन तक पहुँचाया जाए । श्रमण संस्कृति के समान एवं लोकोपयोगी सिद्धान्तों के आधार पर श्रमण संस्कृति का एक ऐसा रूप प्रस्तुत किया जाए, जिसमें भेद की गन्ध न आए, अपितु एकता की सुरभि से जन साधारण का मानस शान्ति एवं सुख की अनुभूति करे । इसी भावना से प्रेरित होकर यहाँ जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में निहित जनकल्याण से सम्बन्धित सामान्य सिद्धान्तों पर सरसरी दृष्टि डाली जा रही है ।
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श्रमण के लिए प्राकृत एवं पालि में समण शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है । समण शब्द का सामान्य अर्थ साधु है । जैनधर्म एवं बौद्धधर्म दोनों में ही श्रमण या साधु या भिक्षु की तीन विशेषताओं को महत्त्व दिया गया है । पहली विशेषता है परिश्रम करना । परिश्रम का अभिप्राय तपस्या से है । अतः दोनों ही धर्मों में व्यक्ति तपस्या या साधना से संसार चक्र से मुक्ति रूप अपने उत्कर्ष को प्राप्त करता है । दूसरी विशेषता है समभाव रखना दोनों ही धर्मों में साधु या भिक्षु को प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखने का बार-बार उपदेश दिया गया है । साधु या भिक्षु तभी अपनी उत्कर्ष अवस्था को प्राप्त कर सकता है जब वह राग एवं द्वेष की भावना से ऊपर विश्वप्रेम या विश्वबन्धुत्व का प्रतीक बन जाए । तीसरी विशेषता है शान्त करना । साधु या भिक्षु के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी तपस्या से मन की अकुशल वृत्तियों का शमन करे । अतः जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में श्रम, सम एवं शम को उत्कर्ष के लिए समान महत्त्व प्रदान किया गया है ।
इसी प्रकार संसार एवं संसार के कारण में भी दोनों धर्मों में समानता दृष्टिगोचर होती है । दोनों ही धर्मों में ईश्वर की प्रभुता का सिद्धान्त मान्य नहीं है तथा कर्म सिद्धान्त को महत्त्व प्रदान किया गया है । इतना अन्तर अवश्य है कि जहाँ जैनधर्म में आध्यात्मिक रूप को अधिक महत्त्व प्रदान किया गया है वहीं बौद्धधर्म में व्यावहारिक रूप को । इसी कारण दोनों धर्मों के अहिंसा के सिद्धान्तों में भी अन्तर है । जैन धर्म के अनुसार व्यक्ति जब किसी की हिंसा का संकल्प करता है तभी वह हिंसाजन्य पाप से कलुषित हो जाता है किन्तु बौद्धधर्म में व्यक्ति तभी हिंसा के पाप
दूषित होता है जब वह हिंसा का विचार करता है फिर हिंसा करता है और हिंसा करने के बाद पश्चात्ताप नहीं करता है । दूसरे शब्दों में बौद्धधर्म के अनुसार हिंसा वहीं मानी जाती है जहाँ आधुनिक भारतीय संविधान की धारा ३०२ लागू होती है । जैसे हिंसा का प्रयत्न करने वाले किन्तु हिंसा के प्रयत्न में असफल रहने वाले व्यक्ति को धारा ३०२ के अन्तर्गत दण्ड न देकर धारा ३०७ के अन्तर्गत दण्ड
परिसंवाद-४
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