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जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन वाद या स्याद्वाद हुआ । विरोधी धर्मों को स्वीकार करना विभज्यवाद का मूलाधार है, जबकि तिर्यक् और उर्ध्वता दोनों प्रकार के सामान्यों के पर्यायों में विरोधी धर्मों का स्वीकार करना अनेकान्तवाद का मूलाधार है। अतः इस दृष्टि से अनेकान्तवाद विभज्यवाद का ही विकसित रूप है। बुद्ध की समन्वय-भावना सिंह सेनापति के साथ संवाद से स्पष्ट होती है जब उन्होंने अपने को अक्रियावादी और क्रियावादी दोनों बताया । (विनयपिटक, महावग्ग–६।३१)
__व्यवहार में अनेकान्त का उपयोग नहीं होने का परिणाम है, हिंसा का विस्तार । अनेकान्त और उसकी आधारभूत अहिंसा का ही परिणाम है कि जैन धर्म अन्य कई धर्मों की तरह कभी भी विस्तारवादी नहीं बना। ज्ञान, विचार, आचरण और वाणी के किसी भी एक विषय को केवल संकीर्ण दृष्टि की अपेक्षा अनेक दृष्टियों से और अधिक से अधिक मार्मिक रीति से विचारने और आचरण करने का जैनसंस्कृति ने आग्रह रखा है। वस्तुतः अनेकान्त जैन-संस्कृति की जीवन-पद्धति है जो सभी दिशाओं से खुला एक मानस-चक्षु है। उसके आगे-पीछे, भीतर-बाहर सर्वत्र ही सत्य का प्रवाह है। अतः यह कोई कल्पना नहीं, परन्तु सत्य सिद्ध तत्त्वज्ञान है। जीवित अनेकान्त पुस्तकों में नहीं जीवन में मिलेगा जब हम दूसरे विषयों को सब ओर से तटस्थ रूप से देखने, विचारने और अपनाने के लिए प्रेरित होंगे। विचारों की जितनी तटस्थता, स्पष्टता, निस्पृहता अधिक होगी, अनेकान्त का बल उतना ही अधिक होगा। हमें यह सोचना चाहिए कि समन्वय जीवन की एक अनिवार्य विवशता है। लेकिन बिना समझे-बूझे या दूसरों की देखा देखी से लाया जाने वाला अनेकान्त न तो तेजस्वी होगा, न उसमें प्राण ही होगा। अतः हमें मानस-अहिंसा के रूप में अनेकान्त को स्वीकार कर समन्वय की साधना को तेजस्वी बनाना चाहिए।
विश्व का विचार करने वाली दो परस्पर भिन्न दृष्टियाँ हैं—एक है सामान्यगामिनी दृष्टि, दूसरी है विशेषगामिनी दृष्टि । सामान्यगामिनी दृष्टि शुरु में तो सारे विश्व में समानता देखती है और धीरे-धीरे अभेद की ओर झुकते-झुकते एकता की भूमिका पर आती है। जबकि विशेषगामिनी दष्टि केवल विभेद ही विभेद देखती है। भेदवाद-अभेदवाद, सद्वाद-असद्वाद, निर्वचनीय-अनिर्वचनीयवाद, हेतुवाद-अहेतुवाद आदि का समन्वय अनेकान्त-दृष्टि से सम्भव है। प्रत्येक युक्तिवाद अमुक-अमुक दृष्टि से अमुक-अमुक सीमा तक अपने को सत्य मानता है। इस प्रकार से सभी युक्तिवाद वास्तविक हैं, हाँ अपनी-अपनी अपेक्षा से । यद्यपि वैदिक दर्शन के न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, वेदान्त और बौद्ध-दर्शन में किसी एक वस्तु के विविध दृष्टियों से निरूपण
परिसंवाद ४
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