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समन्वय की साधना और जैन संस्कृति
धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याहादिभ्यो नमो नमः । ऋषभादि-महावीरान्तेभ्यः स्वास्मोपलब्धये ॥
-लघीयस्त्रय, श्लोक १ अहिंसा की साधना भारतीय-संस्कृति के लिए नयी नहीं है लेकिन जैन-संस्कृति ने अहिंसा को निःश्रेयस के साधनों में सबसे प्रमुख मानकर इसका महत्त्व बढ़ा दिया । मीमांसा आदि वैदिक दर्शनों में हिंसा प्रधान यज्ञ यागादि कर्म को साधन मानकर अहिंसा की उपेक्षा कर दी गयी थी। श्रमण-संस्कृति साध्य के साथ साधन की शुचिता पर भी जोर देती थी इसीलिए ब्राह्मण और श्रमण संस्कृतियों के परस्पर शाश्वत विरोध पर पतंजलि को अपने महाभाष्य में 'अहि-नकुल' और 'गोव्याघ्र' की उपमायें देनी पड़ी। खैर, यह जैन-संस्कृति की अहिंसा-भावना का ही प्रभाव है कि ब्राह्मण परम्परा में यज्ञीय हिंसा का समर्थन केवल परम्परागत शास्त्रचर्चा का विषय मात्र रह गया है लेकिन लोक-व्यवहार में यज्ञीय हिंसा प्रायः लुप्त होकर 'सर्वभूतहिते रताः' के मूल्य पर अवस्थित रही । ऋषभदेव के समान ही कपिल और पतंजलि द्वारा जिस 'आत्मौपम्यभावना' तथा तन्मूलक अहिंसा-धर्म की प्रतिष्ठा का पोषण हुआ है उसमें अद्वितीय समानता है। ब्राह्मण-संस्कृति ने तप द्वारा और श्रमण-संस्कृति ने चित्त-शुद्धि द्वारा साम्यसिद्धि मूलक अहिंसा की प्रतिष्ठा की है। इसीलिए ब्राह्मण-पुराणों में ऋषभदेव का उग्र तपस्वी के रूप में तथा जैन वाङ्मय में कपिल का अत्यधिक उल्लेख है। इस प्रकार साम्य सिद्धिमूलक अहिंसा को समन्वयधर्म के रूप में दोनों ने स्वीकार किया है। जिस शाखा ने साम्य-सिद्धि के लिए अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया और परिवार तक के बंधन को अहिंसा या पूर्ण साम्य की सिद्धि के लिए व्यवधान माना, वही निर्ग्रन्थ नाम से प्रसिद्ध हुई । इन्हीं के प्रवर्तक नेमिनाथ एवं पार्श्वनाथ हुए।
असल में पूर्ण प्राणभूत साम्य-दृष्टि ही अहिंसा का आधार है। जैनश्रुत रूप में द्वादशांगी या चतुर्दशपूर्व में सामाइय (सामयिक) का स्थान प्रथम है जो आचारांग-सूत्र कहलाता है । इसमें साम्य-सिद्धि के लिए 'सम' 'शम' और 'श्रम' पर बल दिया जाता है। जिस प्रकार संध्या-वंदन ब्राह्मण-परम्परा का आवश्यक अंग है उसी प्रकार जैन-परम्परा में गृहस्थ एवं त्यागी सबों के लिए छः आवश्यक कर्म हैं जिनमें मुख्य 'सामाइय' है-'करेमि भंते सामाइयं' । सातवीं सदी में सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् जिनभद्रगणि ने सामाइय की प्रतिष्ठा के लिए विशेषावश्यकभाष्य नामक ग्रंथ लिखकर धर्म के अंगभूत श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र तीनों को ही सामाइय बताया। ब्राह्मण
परिसंवाद -४
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