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________________ अपभ्रंश एवं हिन्दी जैन साहित्य में शोध के नये क्षेत्र ३१३ हिन्दी साहित्य पर अपने पचासों लेखों में विस्तृत प्रकाश डाला और उससे भी हिन्दी जैन साहित्य के प्रति विद्वानों का ध्यान आकर्षित करने में सफलता मिली। श्री महावीर क्षेत्र की ओर से ही राजस्थान के जैन सन्त एवं महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व इन दो पुस्तकों के प्रकाशन से हिन्दी जैन साहित्य की विशालता को देखने का विद्वानों को अवसर प्राप्त हुआ और विश्वविद्यालयों में जैन हिन्दी साहित्य एवं कवियों पर पी-एच० डी० की उपाधि के लिए विषय स्वीकृत होने लगे। अब तक महाकवि बनारसीदास, भूधरदास, बुधजन, भगवतीदास, ब्रह्म जिनदास जैसे कुछ कवियों पर शोध प्रबन्ध विश्वविद्यालयों द्वारा स्वीकृत हो चुके हैं। लेकिन हिन्दी जैन साहित्य की विशालता को देखते हुए हमारे ये प्रयास भी आटे में नमक बराबर हैं । सन् १९७७ में जयपुर में सम्पूर्ण हिन्दी जैन साहित्य को २० भागों में प्रकाशित करने के लिए श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी की स्थापना हिन्दी जैन साहित्य के प्रकाशन के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण कदम है जिसकी सफलता के लिए सभी विद्वानों का सहयोग अपेक्षित है। अकादमी की ओर से करीब ५०० जैन हिन्दी कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला जावेगा तथा १० प्रमुख कवियों का विस्तृत अध्ययन एवं उनकी कृतियों का प्रकाशन किया जावेगा। अकादमी की ओर से अब तक प्रकाशित तीन भाग महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं त्रिभुवनकीर्ति, कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि तथा महाकवि ब्रह्म जिनदास -- व्यक्तित्व एवं कृतित्व - प्रकाशित हो चुके हैं जिनका सभी ओर से स्वागत हुआ है । अकादमी के चतुर्थ भाग भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र में ७० अन्य जैन कवियों का भी परिचय है । मेरे उक्त इतिहास प्रस्तुत करने का अर्थ स्वयं के कार्य पर प्रकाश डालने का नहीं हैं लेकिन विद्वानों को हिन्दी जैन साहित्य की विशालता के दर्शन कराने का है । हिन्दी जैन साहित्य की विशालता में किसी को सन्देह नहीं हो सकता लेकिन प्रश्न उठता है उसके मूल्यांकन एवं प्रकाशन का । इसके अतिरिक्त यह साहित्य किसी एक विधा पर लिखा हुआ नहीं है, किन्तु वह साहित्य के विविध रूपों में निबद्ध है जो अनुसंधान के महत्त्वपूर्ण विषय हो सकते हैं । यह साहित्य स्तोत्र, पाठ संग्रह, कथा, रासो, रास, पूजा, मंगल, जयमाल, प्रश्नोत्तरी, मंत्र, अष्टक, सार, समुच्चय, वर्णन, सुभाषित, चौपई, निसानी, जकडी, व्याहलो, बधावा, विनती, पत्री, परिसंवाद -४ ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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