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जैन धर्म और संस्कृति
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अंशों का पुस्तकीकरण तथा पुस्तक-साहित्य प्रणयन का प्रवर्तन हुआ।° तदन्तर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर, उभय सम्प्रदायों का स्वतन्त्र विकास प्रारम्भ हुआ, संघभेद होते रहे, नये-नये सम्प्रदाय-उपसम्प्रदाय बनते रहे, आचार-विचार में भी देशकालानुसार परिवर्तन होते रहे। जैन संस्कृति का सर्वतोमुखी संवर्धन होता रहा । कभी-कभी और कहीं-कहीं पर्याप्त उत्थान अथवा पतन भी हुए। प्रमुख राज्याश्रय एवं जनसामान्य का समर्थन प्राप्त हुआ तो साम्प्रदायिक विद्वेष और अत्याचार का शिकार भी होना पड़ा। प्रथम-द्वितीय शताब्दी ईस्वी से लेकर प्रायः अठारहवीं शताब्दी पर्यन्त उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में जैनधर्म का विशेष उत्कर्ष एवं प्रभाव रहा । यों, राजस्थान के विभिन्न राज्य, मध्य-भारत, विदर्भ, गुजरात और कर्णाटक जैन संस्कृति के प्रमुख गढ़ रहे हैं। देश के प्रायः प्रत्येक नगर, राजधानी, शासन केन्द्र, व्यापार एवं व्यवसाय केन्द्र में इस धर्म के अनुयायी सदैव अल्पाधिक संख्या में पाए जाते रहे हैं । अपनी शिक्षा-दीक्षा एवं सामान्य समृद्धि के कारण वे धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, आचार-विचार, प्रायः सभी क्षेत्रों में अपनी स्पृहणीय सांस्कृतिक बपौती के सफल संरक्षक रहे हैं। संपूर्ण देश की भावात्मक एकता के संपादन में, वर्तमान युग के स्वातन्त्र्य संग्राम में तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र के नवनिर्माण में उनका यथोचित एवं महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रमुख विशेषताएं
जैन तत्त्वज्ञान यथार्थवादी है। वह विश्व के समस्त इन्द्रियगोचर अथवा अगोचर पदार्थों की सत्ता को स्वीकार करता है और उनका विशद एवं वैज्ञानिक विश्लेषण तथा निरूपण करता है।
जैन कर्म सिद्धान्त नियतिवाद का निषेध करता है-भाग्य, दैव अथवा ईश्वर के आसरे हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने को मूर्खता घोषित करता है, पुरुषार्थ एवं आत्मनिर्भरता के महत्त्व को प्रदर्शित करता है तथा स्फूर्तिदायक आत्मविश्वास, इच्छाशक्ति एवं मनोबल को पुष्ट करता है।
सुविकसित जैन न्यायशास्त्र से परिपुष्ट जैन दर्शन पूर्वोक्त प्रयोजनभूत तत्त्वों का तर्कपूर्ण अकाट्य शैली में प्रतिपादन करता है । जैन न्यायदर्शन भारतीय न्याय शास्त्र का महत्त्वपूर्ण अंग है । इसने जैन सिद्धान्त को मात्र आज्ञा-प्रधान होने के स्थान पर परीक्षा-प्रधान एवं बुद्धिगम्य बना दिया है। १०. डॉ. ज्यो० प्र० जैन-'दी ना सोर्सेज आफ दी हिस्टरी आफ एन्शेन्ट इंडिया', पृष्ठ
१००-११९ ।
परिसंवाद-४
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