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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
संस्कृत को प्रकृति मान लिया और जिस प्रकार प्राकृत-वैयाकरणों ने प्राकृत शब्दों का सर्जन करते समय संस्कृत भाषा के शब्दों को आधार बनाया, किन्तु आधार बनाने मात्र से संस्कृत को प्राकृत की जननी मानना तर्कसंगत नहीं है। इसी को स्पष्ट करते हुये डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि-"प्राकृत भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से नहीं हुई है, किन्तु 'प्रकृतिः संस्कृतम्' का अर्थ है प्राकृत भाषा को सीखने के लिए संस्कृत शब्दों को मूलभूत रखकर उनके साथ उच्चारण भेद के कारण प्राकृत शब्दों का जो साम्य-वैषम्य है उसको दिखाना अर्थात् संस्कृत भाषा के द्वारा प्राकृत भाषा को सीखने का प्रयत्न करना है।"१.
प्राकृत भाषा के उपलब्ध सभी व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ संस्कृत में हैं। एक भी प्राकृत व्याकरण ऐसा नहीं लिखा गया है, जो प्राकृत भाषा में निबद्ध हो । यह भौ उक्त कथन की पुष्टि में सहायक है।
निष्कर्ष यह है कि भाषा किसी व्यक्ति, देश अथवा सम्प्रदाय विशेष की नहीं होती है, अपितु जन सामान्य की होती है। अतः प्राकृत की अविच्छिन्न धारा का अध्ययन करने के लिए उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना चाहिये। इससे प्राकृतों का वास्तविक रूप और नव्य भारतीय आर्य भाषाओं के विकास में प्राकृत के योगदान का सम्यक् मूल्यांकन हो सकेगा।
जैन-बौद्धदर्शन विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-२२१००५
१०. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृष्ठ १३ ।
परिसंवाद-४
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