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________________ २५४ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन उत्पन्न हो गये हैं : अथवा अशोक के अभिलेखों की भाषा सामान्य राष्ट्रभाषा है जिसमें प्रादेशिक आवश्यकताओं के अनुरूप उच्चारण आदि में अल्प परिवर्तन हो गये हैं । मूल तो उन सबका एक ही है-मगध की राजभाषा मागधी, जिसमें भगवान बुद्ध ने अपना उपदेश दिया था। दूसरी बात यह है कि भगवान् बुद्ध के उपदेश मौखिक थे और उनका संकलन उनके निर्वाण के दो तीन शताब्दियों के बाद हुआ। उनका लिपिबद्ध रूप तो प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व में हुआ । इसलिए इसमें अनेक परिवर्द्धनों और परिवर्तनों की सम्भावना हो सकती है। पुनः अर्द्धमागधी और पालि के तुलनात्मक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि इन दोनों में अनेक समानताएँ हैं जैसे पुरे, सुवे, भिक्खवे, पुरिसकारे, दुक्खे आदि । शब्द दोनों में समान हैं। संस्कृत तद् के स्थान में से का होना जैसे तद्यथा का सेय्यथा । कहीं कहीं वर्ण-परिवर्तन का विधान भी समान दिखाई पड़ता है जैसेपालि अद्धमागधी सक्खि सक्ख थरू थरू (छरू) वेलु वेलु नंगल नंगल इस प्रकार संस्कृत यद् के स्थान में 'ये' का हो जाना तथा 'र' का 'ल' हो जाना अर्द्धमागधी की एक बड़ी विशेषता है जो पालि में सर्वत्र नहीं दिखाई पड़ती। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इसमें मागधी की आधी प्रवृत्तियाँ हैं तथा शेष प्रवृत्तियाँ शौरसेनी प्राकृत से मिलती हैं जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस भाषा का प्रचार मगध से पश्चिम प्रदेश में रहा होगा तथा इसका विकास आर्य भाषा के दूसरे स्तर से हुआ होगा। कुछ विद्वानों ने पालि के ध्वनि समूह और रूप विधान की सबसे अधिक समानता शौरसेनी प्राकृत के साथ बताया है। उन विद्वानों का कहना है कि शौरसेनी में पुलिङ्ग अकारान्त शब्दों के प्रथमा एकवचन का रूप ओकारान्त होता है जैसे पुरिसो, बुद्धो, नरो आदि और यही प्रवृत्ति पालि की भी है। दूसरी विशेषता 'ष' का 'स' में परिवर्तन होना है । यह पालि में भी उसी प्रकार विद्यमान है । 'शब्द' का 'सह' पुरुष का 'पुरिस' धर्म का 'धम्म' कर्म का 'कम्म' पश्यति का 'पसति' पुत्र का 'पुत्त' आदि रूप पालि और शौरसेनी में एक जैसा ही है। शौरसेनी में शब्द के मध्य स्थित अघोष स्पर्शों का घोष स्पर्श में परिवर्तन हो जाना पालि में भी समान रूप से परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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