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जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन किया। इस प्रकार जैन और बौद्ध ही नहीं, अपितु पूर्ववर्ती वैष्णव, शैव और शाक्तों के यज्ञवाद, जातिवाद, वेद-प्रामाण्यवाद संबंधी विरोध ने तथा स्त्री, शूद्र आदि के अंगीकार ने श्रमणों के प्रभाव क्षेत्र को अखिल भारतीय बना दिया।
यह सब कहने का अभिप्राय मात्र इतना ही है कि इस तथ्य को समझने में कोई कठिनाई न हो कि क्यों भारतीय संस्कृति के निर्माण में श्रमणों की भाषा एवं साहित्य आदि का प्रधान एवं श्रेष्ठ अवदान है और उन्हें इसके लिए विरोधी मान्यताओं के साथ किस प्रकार चतुर्दिक संघर्ष करना पड़ा। इस तथ्य के स्पष्ट होने में भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि इतिहास काल में सर्वप्रथम श्रमण-संस्कृति द्वारा सर्व भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व संभव हुआ, जो सभी आगम-साहित्यों में प्रतिबिंबित एवं सुरक्षित है। कहा जा सकता है कि श्रमण-संस्कृति का पर्याय उसकी आगम-संस्कृति रही है। इसी पृष्ठभूमि में आगम-संस्कृति में सर्वभारतीयों की संस्कृति प्रतिबिंबित हुई जबकि संस्कृत की संस्कृति में अल्पसंख्यक वर्ग की वर्गीय-संस्कृति ।
दर्शन और आध्यात्मिक चिन्तन की दृष्टि से भी यदि इस तथ्य की परीक्षा करें तो वेद और उपनिषदों से जैन और बौद्ध आगम अधिक पुरोगामी एवं श्रेष्ठ सिद्ध होंगे । बुद्ध एवं महावीर ने दार्शनिक चिन्तन की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया प्रस्तुत की, जिसे विभज्यवाद, मध्यममार्ग और अनेकान्तवाद के द्वारा स्पष्ट किया जाता है। इस
ओर ध्यान जाना चाहिए कि विभज्यवाद, मध्यममार्ग, अनेकान्तवाद मात्र एक दर्शनप्रस्थान नहीं है, अपितु यह चिन्तन की वह प्रवहमान प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अनेकानेक दार्शनिक प्रस्थानों के उद्गम की संभावना खड़ी होती है। जो चिन्तन प्रक्रियाधारित नहीं होता, उसकी गणना श्रेष्ठ दर्शन की कोटि में नहीं की जा सकती, प्रत्युत् वे पूर्व-प्राप्त विश्वासों की व्याख्या मात्र हैं। पालि-प्राकृत आगमों में अपने समकालिक दृष्टिवादों का जो प्रभूत संग्रह, परीक्षण एवं विश्लेषण हुआ, उससे एक ओर श्रमणों के दार्शनिक चिन्तन की तत्परता और उनका बौद्धिक उत्कर्ष प्रकट होता है और दूसरी ओर उस काल की ब्राह्मण परंपरा में उसका अभाव और उनके चिन्तन की अक्षमता को स्पष्ट करता है। बौद्ध, जैन आगमों और प्राचीन साहित्यों में जितने विस्तार से पदार्थ-विद्या का विश्लेषण किया गया है, उदाहरण में परमाणुवाद को लें, उसका जो व्यापक एवं विस्तृत अध्ययन हुआ वह समसामयिक साहित्य में कहाँ उपलब्ध है ? प्राचीनतम काल में परमाणु के संबंध का गंभीर एवं सूक्ष्म अध्ययन जैसा जैनों द्वारा प्रस्तुत किया गया वह आज भी महत्त्वपूर्ण है। कर्मवाद के द्वारा नीतिपरिसंवाद-४
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